Wednesday 6 May 2020

गुरुकृपा फलीभूत हो ..........

गुरुकृपा फलीभूत हो ..........
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परम गुरुकृपा से आज प्रातः उठते ही मुझे लगा कि सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर गया है, सारी सृष्टि नष्ट हो गई है, कहीं पर कुछ भी और कोई भी नहीं बचा है| मैं स्वयं को जो यह शरीर समझता था, वह शरीर भस्म होकर मेरे सामने पड़ा था| मैंने अपनी स्वयं की मृत देह को स्वयं के सामने भस्म होते हुए देखा| मेरे सिवाय वहाँ अन्य कोई नहीं था| मुझे कोई घबराहट या कोई चिंता नहीं हुई| स्मृति में दो मंत्र आए जिनसे मन आनंद से भर गया|
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पहले तो मार्कन्डेय ऋषि कृत भगवान शिव के आराधना स्तोत्र की यह पंक्ति स्मृति में सामने आई ....
"चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः|"
अर्थात जब भगवान चन्द्रशेखर का आश्रय लिया है तब मृत्यु यानि यमराज मेरा क्या बिगाड़ लेगा? गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जिस 'कूटस्थ' शब्द का प्रयोग किया है, वह कूटस्थ ही भगवान चन्द्रशेखर हैं| कूटस्थ-चैतन्य यानि गीता में बताई हुई ब्राह्मी-स्थिति ही भगवान चन्द्रशेखर में आश्रय है| ब्राह्मी-स्थिति जब प्राप्त हो आए तब आत्मा की अमरता यानि शाश्वतता का पता चलता है| उस स्थिति में कोई हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, या बिगड़ सकता चाहे समस्त सृष्टि ही टूट कर बिखर जाये| इसी की महिमा में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है .... "यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः|"
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फिर ईशावास्योपनिषद् का १७ वां मन्त्र सामने आया ..... "वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् | ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर" ||"
"ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर" ..... यह श्रुति-भगवती का आदेश है जो चेतना की गहराई में उतर जाये तो मृत्यु हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती| मेरे सामने मेरा यह शरीर भस्म होकर पड़ा था, जिस से मेरा इसके भस्म होने तक ही संबंध था| अब श्रुति भगवती का यह आदेश सुनाई दे रहा था ... "ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर" ... जिसका पालन ही मेरी आगे की गति तय करेगा| इस मंत्र का अर्थ थोड़ा गूढ़ है जिसे ध्यान से समझना पड़ेगा|
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गीता के नौवें अध्याय के सौलहवें मंत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को क्रतु और यज्ञ भी बताया है (अहं क्रतुरहं यज्ञः)|
ॐ परमात्मा का नाम है .... "तस्य वाचकः प्रणवः" .. ||योगसूत्र.१:२७||
श्रुति भगवती के आदेशानुसार प्रणवरूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य को प्रमादरहित होकर भेदना चाहिए .....
"प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते| अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् || (मुण्डक.२:२:४)"
बाण का जैसे एक लक्ष्य होता है वैसे ही हम सबका लक्ष्य परमात्मा ही होना चाहिए| हमें प्रणव का आश्रय लेकर प्रभु का ध्यान करते हुए स्वयं को उन तक पहुँचाना है|
"ॐ क्रतो स्मर" का अर्थ यही समझ में आता है कि प्रणव के द्वारा निरंतर यज्ञरूप में हम भगवान का स्मरण करें| हमारी सुषुम्ना नाड़ी में प्राणों का प्रवाह सोम और अग्नि के रूप में चलता रहता है, यह भी एक यज्ञ है| कूटस्थ में ज्योति-दर्शन और नाद-श्रवण भी एक यज्ञ है| हम स्वयं को परमात्मा में समर्पित करते हैं, यह भी एक यज्ञ है| हमारा समर्पित होना ही हमारा कृत है| परमात्मा में समर्पित होकर यानि देह-भाव से मुक्त होकर परमात्म-भाव द्वारा (स्वयं द्वारा स्वयं का) परमात्मा का स्मरण "कृतं स्मर" हो सकता है| मुझे तो यही समझ में आ रहा है|
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भगवान हमें अंतकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण करने को कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्||८:१०||"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्यमनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
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शरीर तो हमारा भस्म हो जाएगा, उसके साथ हमारा कोई संबंध नहीं रहेगा| अतः अनुग्रह कर के भगवान स्वयं ही हमारा स्मरण करेंगे| हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहेगा, कोई भेद नहीं होगा| हम परमात्मा के साथ एक होंगे|
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किसी भी तरह की चिंता की कोई बात नहीं है| भगवान का स्पष्ट आश्वासन है.....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्| साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः||९:३०||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
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अंतकाल की भावना ही हमारे अगले देह की प्राप्ति का कारण होती है| ओंकार का ध्यान ही चिदाकाश, दहराकाश, महाकाश, पराकाश और सूर्याकाश इत्यादि लोकों से पार करा कर मह:, जन:, तप: और सत्यलोक से भी परे ले जाकर ब्रह्ममय बना देता है| इसका कभी क्षय नहीं होता अतः यह अक्षर या अक्षय है| ओंकार के ध्यान से हमारे अन्तःकरण की अधोगामी गति ऊर्ध्वगामी हो जाती हैं| यह साक्षात ब्रह्म साधना है जिसकी घोषणा सभी उपनिषद् और भगवद्गीता करती है| इसकी विधि किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से सीखें| पर यह याद रखें .... "ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर|"
ॐ श्रीगुरवे नमः | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१० मार्च २०२०

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