Tuesday 5 May 2020

होली का आध्यात्मिक महत्व और रहस्य :-----

होली का आध्यात्मिक महत्व और रहस्य :-----
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आध्यात्मिक साधना और मंत्र सिद्धि के लिए चार रात्रियों का बड़ा महत्त्व है| ये हैं .... (१)कालरात्रि (दीपावली), (२)महारात्रि (महाशिवरात्रि), (३)मोहरात्रि (जन्माष्टमी). और (४)दारुण रात्रि (होली)| इन रात्रियों को किया गया ध्यान, जप-तप, भजन ... कई गुणा अधिक फलदायी होता है| इस अवसर का लाभ अवश्य उठाना चाहिए| होली की कथा का ज्ञान तो सभी को होना चाहिए| हमारे समय तो पाठ्य पुस्तकों में होली का इतिहास पढ़ाया जाता था| पर उसे हिन्दू-द्रोह के कारण धर्म-निरपेक्षता के नाम पर अब हटा दिया गया है|
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हृदय में परमात्मा के प्रति परमप्रेम जागृत कर त्याग और तपस्या के द्वारा निज जीवन में भौतिक देह की चेतना से ऊपर उठने की साधना तो हमें नित्य करनी ही चाहिए| पर होली के अवसर पर अपने बुरे-अच्छे सारे कर्म और उनके फलों की आहुति कूटस्थ में जल रही परमात्मा की विवेकाग्नि में एक विशेष विधि से अर्पित कर देनी चाहिए, जिसके बारे में कभी लिखूंगा|
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हिरण्य का अर्थ है स्वर्ण यानि Gold, तथा कशिपु का अर्थ है मुलायम बिस्तर| यह हिरण्यकशिपु नाम का असुर स्वर्ण के पलंग पर मुलायम बिस्तरों में सोता था और सारी पृथ्वी का स्वर्ण इसने एकत्र कर रखा था| इसकी रुचि सिर्फ स्वर्ण और सुंदर स्त्रियों में थी| अमर होकर यह धूर्त इन्हीं का भोग करना चाहता था| इसने इस हेतु बड़ी कठोर तपस्या की और ब्रह्मा जी से अमरता का वरदान मांगा| ब्रह्मा जी ने अमरता का वरदान देने में अपनी असमर्थता बताई तो हिरण्यकशिपु ने उनसे प्रार्थना की कि मैं किसी भी मनुष्य, पशु, देवता या ८४ लाख योनियों के अंतर्गत किसी भी जीव द्वारा न मारा जाऊँ| उसने यह प्रार्थना की कि मैं न तो पृथ्वी पर, न जल में, न ही किसी शस्त्र-अस्त्र से मरुँ| इस प्रकार मूर्खतावश हिरण्यकशिपु ने सोचा कि इन प्रबंधों द्वारा वह मृत्यु से बच जायेगा| उसके पुत्र प्रहलाद में इससे विपरीत गुण थे| वह भगवान का परम भक्त था| हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रहलाद को भगवान से विमुख करने के लिए कठोरतम यातनायें दीं| पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा| उसकी एक होलिका नामक बहिन थी जिसे अग्नि में न जलने की सिद्धि थी| हिरण्यकशिपु के आदेश से होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गई| आश्चर्य! होलिका तो अग्नि में जल कर भस्म हो गई पर प्रहलाद का बाल भी बांका न हुआ| हिरण्यकशिपु ने पूछा कि क्या तुम्हारा भगवान इस अग्नि से गर्म हुए लौह-स्तंभ में भी है? प्रहलाद के हाँ कहने पर हिरण्यकशिपु ने उस लौह-स्तंभ पर अपनी गदा से प्रहार किया| उसे समय उस लौह स्तम्भ को फाड़कर नृसिह प्रकट हुए, उनका आधा शरीर सिंह का था और आधा मनुष्य का| बड़ी भयानक गर्जना उन्होनें की और हिरण्यकशिपु को बलात अपनी गोद में लिटाकर अपने नाखूनों से उसका वक्षस्थल विदीर्ण कर उसे मृत्यु प्रदान की|
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यह हिरण्यकशिपु ही फिर रावण और कंस के रूप में आया| वास्तव में वह हिरण्यकशिपु कभी मरा ही नहीं, आज भी लोभ और अहंकार के रूप में हम सब के भीतर बैठा हुआ है| उसको अपनी भक्ति द्वारा हटाना हमारा कार्य है| प्रह्लाद शब्द का अर्थ है आह्लाद, प्रसन्नता, और आनंद| हृदय में भक्ति होगी तो आनंद की प्राप्ति होगी|
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हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं| आत्म-विस्मृति सब दुःखों का कारण है| इन रात्रियों को अपने आत्म-स्वरुप यानि सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान यथासंभव अधिकाधिक करें| इन रात्रियों में सुषुम्ना नाड़ी में प्राण-प्रवाह अति प्रबल रहता है अतः निष्ठा और भक्ति से की गई साधना निश्चित रूप से सफल होती है| इस सुअवसर का सदुपयोग करें और समय इधर उधर नष्ट करने की बजाय आत्मज्ञान ही नहीं बल्कि धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए भी साधना करें| धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए एक विराट आध्यात्मिक ब्रह्मशक्ति के जागरण की हमें आवश्यकता है| यह कार्य हमें ही करना पड़ेगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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कर्मफलों से मुक्त कैसे हों? .....
जब तक लोभ और अहंकार का एक अणुमात्र भी हमारे अंतःकरण में है तब तक कर्मफलों से मुक्ति असंभव है| कर्म फलों को भस्म ही करना है तो अच्छे और बुरे दोनों को ही एक साथ करना होगा| प्राण-तत्व से जुड़ी हुई एक विधि है जिसका ज्ञान निष्ठावान साधकों को भगवान स्वयं करा देते हैं| सर्वप्रथम गीता में बताई हुई अव्यभिचारिणी अनन्य भक्ति को जागृत करें, तब आगे का कार्य भगवान स्वयं करेंगे|
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इस त्योहार को प्राचीन काल में नवान्नेष्टि पर्व के नाम से मनाया जाता था| यह नए अन्न का यज्ञ है| इस पर्व पर लोग विशाल सामूहिक यज्ञों का आयोजन किया करते थे| इस पर्व पर नया अन्न तैयार हो जाता है और नये कच्चे अन्न की बालों को भूनकर खाने से कफ-पित्त (जो इन दिनों में ज्यादा बढ़े होते हैं) जैसे रोग शांत होते हैं| चरकऋषि ने इस प्रकार के कच्चे अन्न को भूनकर खाने को ‘होलक’ कहा है जिसे आजकल होला कहते हैं| भारत अपने इस पर्व की ऐतिहासिकता, प्राचीनता, पावनता और वैज्ञानिकता को विश्व के समक्ष सही स्वरूप में स्थापित करने में असफल रहा है|
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इस अवसर पर एक बार गीता के आत्मसंयमयोग नाम के छठे अध्याय का स्वाध्याय करना चाहिए और कूटस्थ में भगवान का ध्यान करना चाहिए|
आप सब को नमन! होली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ मार्च २०२०

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