ओशो ......
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सन १९६० व १९७० के दशकों में जितना साहित्य आचार्य रजनीश उर्फ़ भगवान श्री रजनीश उर्फ़ ओशो का पढ़ा गया उतना शायद ही अन्य किसी मनीषी का पढ़ा गया था| सन १९८५ तक उनका स्वर्ण काल था जब अमेरिका से प्रताड़ित और अपमानित कर के उनको देश-निकाला दिया गया| उनके कुछ वफादार शिष्य तो अंत तक उनके वफादार रहे पर अनेकों ने उनके साथ विश्वासघात भी किया|
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ओशो का हिंदी में उपलब्ध साहित्य मैनें उस समय से पढ़ा है जब वे आचार्य रजनीश के नाम से जाने जाते थे| अमेरिका जाने से पूर्व जब वे पुणे में थे तब मैंने उनको एक पत्र लिखा था जिसके उत्तर में उनकी संस्था ने मुझे पुणे में उनके कोरेगाँव स्थित आश्रम में आने का निमंत्रण भी दिया था| उनके जैसा प्रतिभाशाली विद्वान् वर्तमान काल में मेरी दृष्टी में तो किसी अन्य को पाना अत्यंत कठिन है| उनके शब्दों की नक़ल भी बहुत अधिक हुई है|
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ओशो की सबसे बड़ी खूबी तो यह थी कि उन्होंने ईसाईयत के साथ कभी भी किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं किया|
ओशो से पूर्व जितने भी भारतीय सन्यासी अमेरिका गए थे ...... स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी योगानंद (परमहंस योगानंद) ..... प्रायः सभी ने ईसा मसीह को भगवान श्रीकृष्ण के समकक्ष रखा ताकि वहाँ के लोग उनकी बात सुनें| यदि वे ऐसा नहीं करते तो उस ईसाई देश में उनकी बात कोई नहीं सुनता| यह एक प्रकार की आध्यात्मिक मार्केटिंग थी|
पर ओशो ने ऐसा कोई समझौता नहीं किया| उन्होंने ईसाईयत पर निरंतर मर्मान्तक प्रहार किये और लाखों लोगों को ईसाईयत के भ्रमजाल से बाहर निकाला| ईसाईयत पर किये गए उनके प्रहारों से आहत होकर ही अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रीगन ने उनको प्रताड़ित और यंत्रणा दे कर के अपने देश से बाहर निकाला| उनको धीमा जहर भी अमेरिका में दिया गया जिससे वे रुग्न होकर शीघ्र ही काल-कवलित हो गए|
ओशो से पूर्व भक्तिवेदांत प्रभुपाद स्वामी अमेरिका गए थे, उन्होंने भी ईसाईयत के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया||
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ओशो की कमियों को देखें तो उनकी सबसे बड़ी कमी थी उनके शब्दों में अंतर्विरोध जो स्वयं उन्होंने स्वीकार भी किया था| उनका "सम्भोग से समाधी" वाला सिद्धांत पश्चिम ने तो स्वीकार किया, पर प्रायः सभी प्रचलित भारतीय परम्पराओं के विरुद्ध होने के कारण भारत में उनकी सर्वाधिक आलोचना भी इसी कारण हुई|
वे जैन समाज में जन्में थे पर जैन धर्म से बंधे हुए नहीं थे|| उन्होंने महावीर के सिद्धांतों के अतिरिक्त, अन्य किसी जैन आचार्य की जहाँ तक मुझे ज्ञात है कोई चर्चा नहीं की है|
उनके "सम्भोग से समाधी" वाले सिद्धांत ने लोगों को बहुत अधिक भ्रमित किया और इसी के चलते वे भारतीय जनमानस में स्वीकृत नहीं हुए|
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मैं उनका न तो अनुयायी हूँ और न विरोधी, पर निष्पक्ष रूप से उनके साहित्य के लिए उनका प्रशंसक अवश्य हूँ| उन्हें नकार नहीं सकता| उनके व्यक्तिगत जीवन में मेरी कोई रूचि नहीं है| अपने साहित्य के कारण ही वे मरे नहीं हैं, आज भी जीवित हैं| उनका साहित्य उन्हें सदा जीवित रखेगा|
इति||
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पुनश्चः : --- ओशो के कारण ही मैंने "विज्ञान भैरव तंत्र" और "नारद भक्ति सूत्रों" का कई बार गहन अध्ययन किया| ओशो के कारण ही मेरी रूचि वेदान्त दर्शन में जागृत हुई| भारत के अनेक संतों पर लिखे उनके लेख बहुत अधिक प्रेरणादायक हैं|
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सन १९६० व १९७० के दशकों में जितना साहित्य आचार्य रजनीश उर्फ़ भगवान श्री रजनीश उर्फ़ ओशो का पढ़ा गया उतना शायद ही अन्य किसी मनीषी का पढ़ा गया था| सन १९८५ तक उनका स्वर्ण काल था जब अमेरिका से प्रताड़ित और अपमानित कर के उनको देश-निकाला दिया गया| उनके कुछ वफादार शिष्य तो अंत तक उनके वफादार रहे पर अनेकों ने उनके साथ विश्वासघात भी किया|
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ओशो का हिंदी में उपलब्ध साहित्य मैनें उस समय से पढ़ा है जब वे आचार्य रजनीश के नाम से जाने जाते थे| अमेरिका जाने से पूर्व जब वे पुणे में थे तब मैंने उनको एक पत्र लिखा था जिसके उत्तर में उनकी संस्था ने मुझे पुणे में उनके कोरेगाँव स्थित आश्रम में आने का निमंत्रण भी दिया था| उनके जैसा प्रतिभाशाली विद्वान् वर्तमान काल में मेरी दृष्टी में तो किसी अन्य को पाना अत्यंत कठिन है| उनके शब्दों की नक़ल भी बहुत अधिक हुई है|
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ओशो की सबसे बड़ी खूबी तो यह थी कि उन्होंने ईसाईयत के साथ कभी भी किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं किया|
ओशो से पूर्व जितने भी भारतीय सन्यासी अमेरिका गए थे ...... स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी योगानंद (परमहंस योगानंद) ..... प्रायः सभी ने ईसा मसीह को भगवान श्रीकृष्ण के समकक्ष रखा ताकि वहाँ के लोग उनकी बात सुनें| यदि वे ऐसा नहीं करते तो उस ईसाई देश में उनकी बात कोई नहीं सुनता| यह एक प्रकार की आध्यात्मिक मार्केटिंग थी|
पर ओशो ने ऐसा कोई समझौता नहीं किया| उन्होंने ईसाईयत पर निरंतर मर्मान्तक प्रहार किये और लाखों लोगों को ईसाईयत के भ्रमजाल से बाहर निकाला| ईसाईयत पर किये गए उनके प्रहारों से आहत होकर ही अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रीगन ने उनको प्रताड़ित और यंत्रणा दे कर के अपने देश से बाहर निकाला| उनको धीमा जहर भी अमेरिका में दिया गया जिससे वे रुग्न होकर शीघ्र ही काल-कवलित हो गए|
ओशो से पूर्व भक्तिवेदांत प्रभुपाद स्वामी अमेरिका गए थे, उन्होंने भी ईसाईयत के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया||
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ओशो की कमियों को देखें तो उनकी सबसे बड़ी कमी थी उनके शब्दों में अंतर्विरोध जो स्वयं उन्होंने स्वीकार भी किया था| उनका "सम्भोग से समाधी" वाला सिद्धांत पश्चिम ने तो स्वीकार किया, पर प्रायः सभी प्रचलित भारतीय परम्पराओं के विरुद्ध होने के कारण भारत में उनकी सर्वाधिक आलोचना भी इसी कारण हुई|
वे जैन समाज में जन्में थे पर जैन धर्म से बंधे हुए नहीं थे|| उन्होंने महावीर के सिद्धांतों के अतिरिक्त, अन्य किसी जैन आचार्य की जहाँ तक मुझे ज्ञात है कोई चर्चा नहीं की है|
उनके "सम्भोग से समाधी" वाले सिद्धांत ने लोगों को बहुत अधिक भ्रमित किया और इसी के चलते वे भारतीय जनमानस में स्वीकृत नहीं हुए|
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मैं उनका न तो अनुयायी हूँ और न विरोधी, पर निष्पक्ष रूप से उनके साहित्य के लिए उनका प्रशंसक अवश्य हूँ| उन्हें नकार नहीं सकता| उनके व्यक्तिगत जीवन में मेरी कोई रूचि नहीं है| अपने साहित्य के कारण ही वे मरे नहीं हैं, आज भी जीवित हैं| उनका साहित्य उन्हें सदा जीवित रखेगा|
इति||
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पुनश्चः : --- ओशो के कारण ही मैंने "विज्ञान भैरव तंत्र" और "नारद भक्ति सूत्रों" का कई बार गहन अध्ययन किया| ओशो के कारण ही मेरी रूचि वेदान्त दर्शन में जागृत हुई| भारत के अनेक संतों पर लिखे उनके लेख बहुत अधिक प्रेरणादायक हैं|
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