"कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा".....
भगवान के नाम का जो इतना अवर्णनीय महत्व है वह तो सभी युगों के लिए होना चाहिए, पर सिर्फ कलियुग के लिए ही इसका इतना अधिक महत्व क्यों बताया गया है? अन्य युगों में क्या और भी कोई आधार था?
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यह प्रश्न मैनें माननीय स्वर्गीय श्री मिथिलेश व्दिवेदी जी से पूछा था| उन्होंने जो उत्तर दिया था उसे साभार उन्हीं के शब्दों में प्रेषित कर रहा हूँ......
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"हर हर महादेव......नमन मान्यवर कृपा शंकर बी. जी,
एक बार कुछ मुनि मिलकर विचार करने लगे कि किस समय में थोड़ा सा पुण्य भी महान फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं?…। वे जब कोई निर्णय नहीं कर सके,तब निर्णय के लिए मुनि व्यास के पास पहुंचे। व्यासजी उस समय गंगाजी में स्नान कर रहे थे। मुनि मंडली उनकी प्रतीक्षा में गंगाजी के तट पर स्थित एक वृक्ष के पास बैठ गयी……। वृक्ष के पास बैठे मुनियों ने देखा कि व्यासजी गंगा में डुबकी लगाकर जल से ऊपर उठे और “शूद्रः साधुः“,”कलिः साधुः” पढ़कर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। जल से ऊपर उठकर ‘योषितः साधु धन्यास्ताभ्यो धन्यरोस्ति कः ‘ कहकर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। मुनिगण इसे सुनकर संदेह में पड़ गए। व्यासजी द्वारा कहे गए मन्त्र नदी स्नान-काल में पढ़े जानेवाले मंत्रो में से नहीं थे, वो जो कह रहे थे उसका अर्थ है ‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है!!!’ मुनिगण संदेह के समाधान हेतु आये थे,परन्तु यह सुनकर वे पहले से भी विकट संदेह में पड़ गए और जिज्ञासा से एक दुसरे को देखने लगे……कुछ देर बाद स्नान कर लेने पर नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्यासजी जब आश्रम में आये,तब मुनिगण भी उनके समीप पहुंचे। वे सब जब यथायोग्य अभिवादन आदि के अनंतर आसनों पर बैठ गए तब व्यासजी ने उनसे आगमन का उद्देश्य पूछा। मुनियों ने कहा कि हमलोग आपसे एक संदेह का समाधान कराने आये थे, किन्तु इस समय उसे रहने दिया जाए, केवल हमें संभव हो तो यह बतलाया जाए कि आपने स्नान करते समय कई बार कहा था कि ‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, सो बात क्या है? हमें कृपा करके बताएं। यह जान लेने के बाद हम जिस आतंरिक संदेह के समाधान के लिए आये थे,उसे कहेंगे।
व्यासजी उनकी बातें सुनकर बोले कि मैंने कलियुग, शूद्र और स्त्रियों को जो बार बार साधुश्रेष्ठ कहा, आपलोग सुनें। जो फल सतयुग में दस वर्ष ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने से मिलता है, उसे मनुष्य त्रेता में एक वर्ष, द्वापर में एक मास और कलियुग में सिर्फ एक दिन में प्राप्त कर लेता है…। जो फल सतयुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवार्चन करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग में सिर्फ ईश्वर का नाम-कीर्तन करने से मिल जाता है। कलियुग में थोड़े से परिश्रम से ही लोगों को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती है,इन कारणों से मैंने कलियुग को श्रेष्ठ कहा।"
......................................................................................
"शास्त्रों में लिखा है कि कलियुग में भगवान का अवतरण होता है 'नाम' के रूप में। कलियुग में जो युग-धर्म है वह है नाम संकीर्तन। भगवान चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है कि कलियुग में केवल हरिनाम ही हमारा उद्धार कर सकता है। इसके अलावा किसी भी अन्य साधना से सद्गति नहीं है। यही बात नानक देव ने भी कही है, 'नानक दुखिया सब संसार, ओही सुखिया जो नामाधार।' रामचरितमानस में भी यही लिखा है, कलियुग केवल नाम आधारा। किसी भी संत के पास चले जाओ, किसी भी शास्त्र को उठाओ, सब यही इंगित करते हैं कि कलियुग में भगवान का अवतरण उनके नाम के रूप में हुआ है। इसी से उद्धार होगा।
यहां पर मैं एक बात कहना चाहूंगा कि यह भगवद् नाम अन्य भौतिक नामों की तरह जड़ नहीं है। भौतिक जगत में हम देख सकते हैं कि एक व्यक्ति का नाम लक्ष्मीपति है परंतु वह है एक भिखारी। अथवा नयनमणि नाम वाला व्यक्ति एक आँख से काना है। किंतु भगवद् राज्य में ऐसा नहीं होता। लक्ष्मीपति भगवान वास्तव में लक्ष्मी के पति ही हैं व सबसे धनी हैं। गोविंद सभी इंदियों के स्वामी हैं व इंदियां उनकी सेवा में नियुक्त हैं। कृष्ण नाम जिनका है, वे वास्तव में सभी को आकर्षित करने वाले हैं।
भगवद् नाम हमारी दुष्टों से रक्षा करेगा, हमें इस भव सागर से पार कराएगा, हमें हमारी इच्छानुसार वरदान देगा। वह सब कुछ करेगा, किंतु इसके लिए हमें पूर्ण रूप से समर्पित होकर नाम कीर्तन करना होगा। यह तभी होगा। आखिर दौपदी ने वस्त्र हरण के समय जब तक पूर्ण शरणागत होकर दोनों हाथ उठा कर भगवान को नहीं पुकारा था, तब तक भगवान नहीं आए थे।"
............................................................
"एक बार राजा परीक्षित जंगल से गुजर रहे थे तो उन्होंने एक बैल को एक टाँग पर खड़ा देखा। जब राजा ने बैल से पूछा तो उसने कुछ स्पष्ट नहीं बताया क्योंकि वे और कोई और नहीं बल्कि स्वयं साक्षात् धर्मराज थे और धर्मराज कैसे किसी की निंदा कर सकते थे? तब परीक्षित ने ध्यान बल से पता लगाया कि इनकी ऐसी दशा का जिम्मेदार कलियुग है। राजा ने सोचा कि कलियुग के आने पर संसार में चारों तरफ लूट-पाट चोरी-डकैती आदि नाना प्रकार के पापकर्मों की वृद्धि हो जायेगी अतः इस कलियुग का अंत कर देना चाहिए। जब उन्होंने कलियुग का अंत करने का पूरा मानस बना लिया था तभी उनके मन में एक विचार आया, जिसके कारण उन्होंने कलियुग का अंत करने का विचार त्याग दिया। उन्होंने सोचा कि कलियुग में सभी प्रकार की बुराइयां हैं, लेकिन इस में एक बहुत बड़ी अच्छाई भी है जिसका लाभ कलियुग में सबको प्राप्त होगा और वो वह है कि कलियुग में ईश्वर की प्राप्ति के लिए लोगों को बड़े-बड़े यज्ञ नहीं करने पड़ेंगे। सालों-साल तक तपस्या नहीं करनी पड़ेगी केवल एक बार सच्चे मन से जो व्यक्ति ईश्वर के नाम का उच्चारण करेगा और ईश्वर को याद करेगा बस उसे ही ईश्वर की प्राप्ति हो जायेगी। यह सोचकर उन्होंने उस समय कलियुग पर केवल पूर्णतया नियंत्रण कर लिया लेकिन उसका वध नहीं किया। इसी का उल्लेख तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में किया है -
कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा......
साभार: मिथिलेश व्दिवेदी जी.
भगवान के नाम का जो इतना अवर्णनीय महत्व है वह तो सभी युगों के लिए होना चाहिए, पर सिर्फ कलियुग के लिए ही इसका इतना अधिक महत्व क्यों बताया गया है? अन्य युगों में क्या और भी कोई आधार था?
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यह प्रश्न मैनें माननीय स्वर्गीय श्री मिथिलेश व्दिवेदी जी से पूछा था| उन्होंने जो उत्तर दिया था उसे साभार उन्हीं के शब्दों में प्रेषित कर रहा हूँ......
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"हर हर महादेव......नमन मान्यवर कृपा शंकर बी. जी,
एक बार कुछ मुनि मिलकर विचार करने लगे कि किस समय में थोड़ा सा पुण्य भी महान फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं?…। वे जब कोई निर्णय नहीं कर सके,तब निर्णय के लिए मुनि व्यास के पास पहुंचे। व्यासजी उस समय गंगाजी में स्नान कर रहे थे। मुनि मंडली उनकी प्रतीक्षा में गंगाजी के तट पर स्थित एक वृक्ष के पास बैठ गयी……। वृक्ष के पास बैठे मुनियों ने देखा कि व्यासजी गंगा में डुबकी लगाकर जल से ऊपर उठे और “शूद्रः साधुः“,”कलिः साधुः” पढ़कर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। जल से ऊपर उठकर ‘योषितः साधु धन्यास्ताभ्यो धन्यरोस्ति कः ‘ कहकर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। मुनिगण इसे सुनकर संदेह में पड़ गए। व्यासजी द्वारा कहे गए मन्त्र नदी स्नान-काल में पढ़े जानेवाले मंत्रो में से नहीं थे, वो जो कह रहे थे उसका अर्थ है ‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है!!!’ मुनिगण संदेह के समाधान हेतु आये थे,परन्तु यह सुनकर वे पहले से भी विकट संदेह में पड़ गए और जिज्ञासा से एक दुसरे को देखने लगे……कुछ देर बाद स्नान कर लेने पर नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्यासजी जब आश्रम में आये,तब मुनिगण भी उनके समीप पहुंचे। वे सब जब यथायोग्य अभिवादन आदि के अनंतर आसनों पर बैठ गए तब व्यासजी ने उनसे आगमन का उद्देश्य पूछा। मुनियों ने कहा कि हमलोग आपसे एक संदेह का समाधान कराने आये थे, किन्तु इस समय उसे रहने दिया जाए, केवल हमें संभव हो तो यह बतलाया जाए कि आपने स्नान करते समय कई बार कहा था कि ‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, सो बात क्या है? हमें कृपा करके बताएं। यह जान लेने के बाद हम जिस आतंरिक संदेह के समाधान के लिए आये थे,उसे कहेंगे।
व्यासजी उनकी बातें सुनकर बोले कि मैंने कलियुग, शूद्र और स्त्रियों को जो बार बार साधुश्रेष्ठ कहा, आपलोग सुनें। जो फल सतयुग में दस वर्ष ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने से मिलता है, उसे मनुष्य त्रेता में एक वर्ष, द्वापर में एक मास और कलियुग में सिर्फ एक दिन में प्राप्त कर लेता है…। जो फल सतयुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवार्चन करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग में सिर्फ ईश्वर का नाम-कीर्तन करने से मिल जाता है। कलियुग में थोड़े से परिश्रम से ही लोगों को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती है,इन कारणों से मैंने कलियुग को श्रेष्ठ कहा।"
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"शास्त्रों में लिखा है कि कलियुग में भगवान का अवतरण होता है 'नाम' के रूप में। कलियुग में जो युग-धर्म है वह है नाम संकीर्तन। भगवान चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है कि कलियुग में केवल हरिनाम ही हमारा उद्धार कर सकता है। इसके अलावा किसी भी अन्य साधना से सद्गति नहीं है। यही बात नानक देव ने भी कही है, 'नानक दुखिया सब संसार, ओही सुखिया जो नामाधार।' रामचरितमानस में भी यही लिखा है, कलियुग केवल नाम आधारा। किसी भी संत के पास चले जाओ, किसी भी शास्त्र को उठाओ, सब यही इंगित करते हैं कि कलियुग में भगवान का अवतरण उनके नाम के रूप में हुआ है। इसी से उद्धार होगा।
यहां पर मैं एक बात कहना चाहूंगा कि यह भगवद् नाम अन्य भौतिक नामों की तरह जड़ नहीं है। भौतिक जगत में हम देख सकते हैं कि एक व्यक्ति का नाम लक्ष्मीपति है परंतु वह है एक भिखारी। अथवा नयनमणि नाम वाला व्यक्ति एक आँख से काना है। किंतु भगवद् राज्य में ऐसा नहीं होता। लक्ष्मीपति भगवान वास्तव में लक्ष्मी के पति ही हैं व सबसे धनी हैं। गोविंद सभी इंदियों के स्वामी हैं व इंदियां उनकी सेवा में नियुक्त हैं। कृष्ण नाम जिनका है, वे वास्तव में सभी को आकर्षित करने वाले हैं।
भगवद् नाम हमारी दुष्टों से रक्षा करेगा, हमें इस भव सागर से पार कराएगा, हमें हमारी इच्छानुसार वरदान देगा। वह सब कुछ करेगा, किंतु इसके लिए हमें पूर्ण रूप से समर्पित होकर नाम कीर्तन करना होगा। यह तभी होगा। आखिर दौपदी ने वस्त्र हरण के समय जब तक पूर्ण शरणागत होकर दोनों हाथ उठा कर भगवान को नहीं पुकारा था, तब तक भगवान नहीं आए थे।"
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"एक बार राजा परीक्षित जंगल से गुजर रहे थे तो उन्होंने एक बैल को एक टाँग पर खड़ा देखा। जब राजा ने बैल से पूछा तो उसने कुछ स्पष्ट नहीं बताया क्योंकि वे और कोई और नहीं बल्कि स्वयं साक्षात् धर्मराज थे और धर्मराज कैसे किसी की निंदा कर सकते थे? तब परीक्षित ने ध्यान बल से पता लगाया कि इनकी ऐसी दशा का जिम्मेदार कलियुग है। राजा ने सोचा कि कलियुग के आने पर संसार में चारों तरफ लूट-पाट चोरी-डकैती आदि नाना प्रकार के पापकर्मों की वृद्धि हो जायेगी अतः इस कलियुग का अंत कर देना चाहिए। जब उन्होंने कलियुग का अंत करने का पूरा मानस बना लिया था तभी उनके मन में एक विचार आया, जिसके कारण उन्होंने कलियुग का अंत करने का विचार त्याग दिया। उन्होंने सोचा कि कलियुग में सभी प्रकार की बुराइयां हैं, लेकिन इस में एक बहुत बड़ी अच्छाई भी है जिसका लाभ कलियुग में सबको प्राप्त होगा और वो वह है कि कलियुग में ईश्वर की प्राप्ति के लिए लोगों को बड़े-बड़े यज्ञ नहीं करने पड़ेंगे। सालों-साल तक तपस्या नहीं करनी पड़ेगी केवल एक बार सच्चे मन से जो व्यक्ति ईश्वर के नाम का उच्चारण करेगा और ईश्वर को याद करेगा बस उसे ही ईश्वर की प्राप्ति हो जायेगी। यह सोचकर उन्होंने उस समय कलियुग पर केवल पूर्णतया नियंत्रण कर लिया लेकिन उसका वध नहीं किया। इसी का उल्लेख तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में किया है -
कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा......
साभार: मिथिलेश व्दिवेदी जी.
यह चौपाई तुलसी करत रामचरित मानस में नहीं है अगर आपको मिली हो तो कांड दोहा संख्या आदि पोस्ट करें तुलसी जी के नाम से गलत पोस्ट न करें
ReplyDeleteYeh shreemad bhagvtam ka hai..🙏
Deleteयह चौपाई तुलसी मानस में नहीं है ये कहाँ से ली है बताने का कष्ट करें
ReplyDeleteचौपाई ईस प्रकार हैं कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा। उत्तरकांड में है
ReplyDeleteकिस कांड में लिखी ह ये चौपाई
ReplyDeleteउत्तरकंड रामचरितमानस दोहा no 102 chopai no २
Deleteये चौपाई किस कांड में लिखी गई है
ReplyDeleteKalyug kewal name adhara yah chaupai balkand me h
ReplyDeleteकृपया चौपाई संख्या बताने का कष्ट करें
Deleteनहीं है
Deleteकलियुग केवल नाम अधारा, सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा। यह किस कांड में है और क्या संख्या है।
ReplyDeleteश्रीमदभागवतगीता
Deleteकलियुग केवल नाम अधारा,...... यह नानक वाणी न की तुलसीदास जी की
Deleteकही नही है रामचरित मानस में
Deleteरामचरितमानस में चौपाई नहीं है
ReplyDeleteBalkand m ni hai
ReplyDeleteYe shyad nanak Ji me likha hai
ReplyDeleteUttarakhand
ReplyDeleteYah chaupai ramcharit manas ke kis kand air kis dohe me hai.batane ki kripa karen
ReplyDeleteKaliyug kewal naam Adhara I sumiri -2 nar utarihin para ll
ReplyDeleteयह चौपाई कौन से रामायण के किस कांड में है क्योंकि तुलसीदास रचित रामचरितमानस में भी नहीं है एवं तुलसीदास की रामायण जो वेंकटेश्वर प्रसाद महाराष्ट्र का छपा है उसमें भी नहीं है
ReplyDeleteये चौपाई मानस मतंग से है
ReplyDeleteYe किसने कहा है
ReplyDeleteKabirdas ji ke Sishye Garibdasji ne kahi hai
Deleteचौपाई जहां भी है पर सत्य है। फालतू की बातें छोड़ो राम राम करो। फल अवश्य मिलेगा। बार बार रटने से भावना बदल जाती है और फिर आप बदल जाएंगे। ये मेरा दावा है। पं. रविशंकर मिश्रा ।
ReplyDeleteअत्यधिक गहन अध्ययन किया है आपने।
ReplyDeleteयह चौपाई रामचरितमानस में नही है।
वाद-विवाद का विषय कदापि नहीं अपितु जिज्ञासा का विषय अवश्य है।
🙏जय श्रीराम 🚩