भगवान महावीर और स्यादवाद ......
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महावीर जयंती पर भगवान महावीर के अनुयायियों को शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन|
मेरा जहाँ तक अल्प और सीमित ज्ञान है, महावीर की शिक्षाओं का सार और उद्देश्य है ..... "वीतरागता", यानि एक ऐसी अवस्था की प्राप्ति जो राग-द्वेष और अहंकार से परे हो|
उनकी सबसे बड़ी देन है ..... "स्यादवाद" यानि "अनेकान्तवाद"| स्यादवाद दर्शन इतना स्पष्ट, सरल और सर्वग्राह्य है कि उस पर कोई विवाद नहीं हो सकता| उनके अनुसार सत्य को वो ही जान सकता है जिसने 'कैवल्य' की स्थिति प्राप्त कर ली हो|
उनके अनुयायी "कैवल्य" को कैसे परिभाषित करते हैं, इसका मुझे ज्ञान नहीं है| यह मैं अवश्य जानना चाहूँगा|
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उनके दर्शन के बारे में मैंने विभिन्न स्त्रोतों से जो अध्ययन किया है उसका सार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ .......
स्यादवाद दर्शन :---
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किसी भी वस्तु के अनन्त गुण होते हैं। मुक्त या कैवल्य प्राप्त साधक को ही अनन्त गुणों का ज्ञान संभव है। साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है। वस्तु का यह आंशिक ज्ञान ही नय कहलाता है। नय किसी भी वस्तु को समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं। आंशिक और सापेक्ष ज्ञान से सापेक्ष सत्य की प्राप्ति ही संभव है, निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति नहीं। सापेक्ष सत्य की प्राप्ति के कारण ही किसी भी वस्तु के संबंध में साधारण व्यक्ति का निर्णय सभी दृष्टियों से सत्य नहीं हो सकता। लोगों के बीच मतभेद रहने का कारण यह है कि वे अपने विचारों को नितान्त सत्य मानने लगते हैं और दूसरे के विचारों की उपेक्षा करते हैं। विचारों को तार्किक रूप से अभिव्यक्त करने और ज्ञान की सापेक्षता का महत्व दर्शाने के लिए ही स्यादवाद या सप्तभंगी नय का सिद्धांत प्रतिपादित किया है।
सापेक्षिक ज्ञान का बोध कराने के लिए प्रत्येक नय के आरंभ में स्यात् शव्द के प्रयोग का निर्देश किया गया है। इसका उदाहरण एक हाथी और छः नेत्रहीन व्यक्तियों के माध्यम से दिया है। सभी नेत्रहीन ज्ञान की उपलब्धता और उस तक पहुँच की सीमा का बोध कराते हैं। यदि कोई हाथी को सीमित अनुभव के आधार पर कहे कि हाथी खम्भे, रस्सी, दीवार, अजगर या पंखे जैसा है तो वह उसके आंशिक ज्ञान और सापेक्ष सत्य को ही व्यक्त करता है। यदि इसी अनुभव में 'स्यात्' शब्द जोड़ दिया जाय तो मत दोषरहित माना जाता है। अर्थात, यदि कहा जाय कि 'स्यात् हाथी खम्भे या रस्सी के समान है' तो मत तार्किक रूप से सही माना जायगा। उर्दू का शब्द "शायद" "स्यात" का ही अपभ्रंस है|
सप्तभंगी नय :---
(1) स्यात्-अस्ति ............................ (शायद है) |
(2) स्यात्-नास्ति .......................... (शायद नहीं है) |
(3) स्यात् अस्ति च नास्ति च ............(शायद है भी और नहीं भी है) |
(4) स्यात् अव्यक्तम् .................... ..(शायद अव्यक्त है) |
(5) स्यात् अस्ति च अव्यक्तम् च ...... (शायद है भी और अव्यक्त भी है) |
(6) स्यात् नास्ति च अव्यक्तम् च ......(शायद नहीं भी है और अव्यक्त भी है) |
(7) स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तम् च...(शायद है भी और नहीं भी और अव्यक्त भी है) |
यह विषय मूल रूप से समझने में अति सरल है| कोई भी इसे समझ सकता है|
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वैदिक और श्रमण परंपरा में अंतर .....
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वैदिक परंपरा और श्रमण परम्परा में मूलभूत अंतर यह है कि वैदिक परम्परा वेदों को अपौरुषेय और प्रमाण मानती है, जहाँ श्रमण परंपरा वेदों को अपौरुषेय और प्रमाण नहीं मानती| वैदिक परम्परा आस्तिक है और श्रमण परम्परा नास्तिक है| जैन दर्शन नास्तिक दर्शन है| इस विषय पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए| दोनों में सबसे बड़ी समानता जो है वह है ..... "वीतरागता", जो कोई छोटी मोटी बात नहीं बल्कि बहुत महान उपलब्धि है|
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तीर्थंकर महावीर के उपदेशों की जिन विद्वानों ने विवेचनाएँ की है (क्षमायाचना सहित निवेदन करना चाहता हूँ कि) उन्होंने उसे अत्यंत जटिल और संकीर्ण बना दिया है, अन्यथा यह अत्यंत सरल और पारदर्शी है|
उन्होंने ईश्वर की कहीं आवश्यकता नहीं समझी और सीधे ही वीतरागता की बात की| वीतरागता का अर्थ है ऐसी अवस्था जो राग द्वेष और अहंकार से परे हो| मेरे विचार से यही "कैवल्य" अवस्था है|
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>>> उनके उपदेशों का सार यह है कि पहले वीतराग बनो तभी सत्य को समझ पाओगे| <<<
श्रमण परम्परा का आरम्भ ऋषभदेव से होता है जिनका उल्लेख ऋग्वेद और भागवत में भी है|
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मेरे लिखने में कोई अशुद्धि या दोष रहा हो तो विद्वजनों से क्षमा चाहता हूँ|
धन्यवाद| पुनश्चः मंगल कामनाएँ और अभिनन्दन|
कृपाशंकर
April18,2016
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महावीर जयंती पर भगवान महावीर के अनुयायियों को शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन|
मेरा जहाँ तक अल्प और सीमित ज्ञान है, महावीर की शिक्षाओं का सार और उद्देश्य है ..... "वीतरागता", यानि एक ऐसी अवस्था की प्राप्ति जो राग-द्वेष और अहंकार से परे हो|
उनकी सबसे बड़ी देन है ..... "स्यादवाद" यानि "अनेकान्तवाद"| स्यादवाद दर्शन इतना स्पष्ट, सरल और सर्वग्राह्य है कि उस पर कोई विवाद नहीं हो सकता| उनके अनुसार सत्य को वो ही जान सकता है जिसने 'कैवल्य' की स्थिति प्राप्त कर ली हो|
उनके अनुयायी "कैवल्य" को कैसे परिभाषित करते हैं, इसका मुझे ज्ञान नहीं है| यह मैं अवश्य जानना चाहूँगा|
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उनके दर्शन के बारे में मैंने विभिन्न स्त्रोतों से जो अध्ययन किया है उसका सार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ .......
स्यादवाद दर्शन :---
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किसी भी वस्तु के अनन्त गुण होते हैं। मुक्त या कैवल्य प्राप्त साधक को ही अनन्त गुणों का ज्ञान संभव है। साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है। वस्तु का यह आंशिक ज्ञान ही नय कहलाता है। नय किसी भी वस्तु को समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं। आंशिक और सापेक्ष ज्ञान से सापेक्ष सत्य की प्राप्ति ही संभव है, निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति नहीं। सापेक्ष सत्य की प्राप्ति के कारण ही किसी भी वस्तु के संबंध में साधारण व्यक्ति का निर्णय सभी दृष्टियों से सत्य नहीं हो सकता। लोगों के बीच मतभेद रहने का कारण यह है कि वे अपने विचारों को नितान्त सत्य मानने लगते हैं और दूसरे के विचारों की उपेक्षा करते हैं। विचारों को तार्किक रूप से अभिव्यक्त करने और ज्ञान की सापेक्षता का महत्व दर्शाने के लिए ही स्यादवाद या सप्तभंगी नय का सिद्धांत प्रतिपादित किया है।
सापेक्षिक ज्ञान का बोध कराने के लिए प्रत्येक नय के आरंभ में स्यात् शव्द के प्रयोग का निर्देश किया गया है। इसका उदाहरण एक हाथी और छः नेत्रहीन व्यक्तियों के माध्यम से दिया है। सभी नेत्रहीन ज्ञान की उपलब्धता और उस तक पहुँच की सीमा का बोध कराते हैं। यदि कोई हाथी को सीमित अनुभव के आधार पर कहे कि हाथी खम्भे, रस्सी, दीवार, अजगर या पंखे जैसा है तो वह उसके आंशिक ज्ञान और सापेक्ष सत्य को ही व्यक्त करता है। यदि इसी अनुभव में 'स्यात्' शब्द जोड़ दिया जाय तो मत दोषरहित माना जाता है। अर्थात, यदि कहा जाय कि 'स्यात् हाथी खम्भे या रस्सी के समान है' तो मत तार्किक रूप से सही माना जायगा। उर्दू का शब्द "शायद" "स्यात" का ही अपभ्रंस है|
सप्तभंगी नय :---
(1) स्यात्-अस्ति ............................ (शायद है) |
(2) स्यात्-नास्ति .......................... (शायद नहीं है) |
(3) स्यात् अस्ति च नास्ति च ............(शायद है भी और नहीं भी है) |
(4) स्यात् अव्यक्तम् .................... ..(शायद अव्यक्त है) |
(5) स्यात् अस्ति च अव्यक्तम् च ...... (शायद है भी और अव्यक्त भी है) |
(6) स्यात् नास्ति च अव्यक्तम् च ......(शायद नहीं भी है और अव्यक्त भी है) |
(7) स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तम् च...(शायद है भी और नहीं भी और अव्यक्त भी है) |
यह विषय मूल रूप से समझने में अति सरल है| कोई भी इसे समझ सकता है|
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वैदिक और श्रमण परंपरा में अंतर .....
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वैदिक परंपरा और श्रमण परम्परा में मूलभूत अंतर यह है कि वैदिक परम्परा वेदों को अपौरुषेय और प्रमाण मानती है, जहाँ श्रमण परंपरा वेदों को अपौरुषेय और प्रमाण नहीं मानती| वैदिक परम्परा आस्तिक है और श्रमण परम्परा नास्तिक है| जैन दर्शन नास्तिक दर्शन है| इस विषय पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए| दोनों में सबसे बड़ी समानता जो है वह है ..... "वीतरागता", जो कोई छोटी मोटी बात नहीं बल्कि बहुत महान उपलब्धि है|
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तीर्थंकर महावीर के उपदेशों की जिन विद्वानों ने विवेचनाएँ की है (क्षमायाचना सहित निवेदन करना चाहता हूँ कि) उन्होंने उसे अत्यंत जटिल और संकीर्ण बना दिया है, अन्यथा यह अत्यंत सरल और पारदर्शी है|
उन्होंने ईश्वर की कहीं आवश्यकता नहीं समझी और सीधे ही वीतरागता की बात की| वीतरागता का अर्थ है ऐसी अवस्था जो राग द्वेष और अहंकार से परे हो| मेरे विचार से यही "कैवल्य" अवस्था है|
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>>> उनके उपदेशों का सार यह है कि पहले वीतराग बनो तभी सत्य को समझ पाओगे| <<<
श्रमण परम्परा का आरम्भ ऋषभदेव से होता है जिनका उल्लेख ऋग्वेद और भागवत में भी है|
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मेरे लिखने में कोई अशुद्धि या दोष रहा हो तो विद्वजनों से क्षमा चाहता हूँ|
धन्यवाद| पुनश्चः मंगल कामनाएँ और अभिनन्दन|
कृपाशंकर
April18,2016
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