Sunday, 2 December 2018

नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः .....

नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः, अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्  |
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उपरोक्त श्लोक बड़ा ही विलक्षण श्लोक है| यह श्लोक स्कन्दपुराण के दूसरे खण्ड (वैष्णवखण्ड, पुरुषोत्तमजगन्नाथमाहात्म्य) के सताइसवें अध्याय का पंद्रहवाँ श्लोक है| इस से कुछ कुछ मिलता जुलता एक श्लोक विष्णु पुराण में भी देखा है| जब दृष्टा, दृश्य और दृष्टी .... सभी परमात्ममय हो जाते हैं तभी ऐसे भावों की सृष्टि होती है| यहाँ वेदान्त की भी पराकाष्ठा है| यह बड़ी ही दिव्य स्तुति है|
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ब्रह्माजी यहाँ भगवान विष्णु की स्तुति कर रहे हैं| विष्णु के साथ साथ स्वयं को भी नमन कर रहे हैं, और यह भी कह रहे है कि जो आप हैं वह ही मैं हूँ, अतः दोनों को नमन| इस तरह की ऐसे भावों की एक ही स्तुति मैनें देखी है|यह बहुत सरल संस्कृत भाषा में है पर इसके भावार्थ का मैं अनुवाद करने में असमर्थ हूँ| यदि समझ में न आये तो किसी संस्कृत के विद्वान् से इसका अर्थ समझ लीजिये|
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|| ब्रह्मोवाच ||
नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः |
अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम् ||१५||
महदादि जगत्सर्वं मायाविलसितं तव |
अध्यस्तं त्वयि विश्वात्मंस्त्वयैव परिणामितम् ||१६||
यदेतदखिलाभासं तत्त्वदज्ञानसंभवम् |
ज्ञाते त्वयि विलीयेत रज्जुसर्पादिबोधवत् ||१७||
अनिर्वक्तव्यमेवेदं सत्त्वात्सत्त्वविवेकतः |
अद्वितीय जगद्भास स्वप्रकाश नमोऽस्तु ते ||१८||
विषयानंदमखिलं सहजानंदरूपिणः |
अंशं तवोपजीवंति येन जीवंति जंतवः ||१९||
निष्प्रपंच निराकार निर्विकार निराश्रय |
स्थूलसूक्ष्माणुमहिमन्स्थौल्यसूक्ष्मविवर्जित ||२०||
गुणातीत गुणाधार त्रिगुणात्मन्नमोऽस्तु ते |
त्वन्मायया मोहितोऽहं सृष्टिमात्रपरायणः ||२१||
अद्यापि न लभे शर्म अंतर्य्यामिन्नमोस्तु ते |
त्वन्नाभिपंकजाज्जातो नित्यं तत्रैव संस्तुवन् ||२२||
नातिक्रमितुमीशोऽस्मि मायां ते कोऽन्य ईश्वरः |
अहं यथांडमध्येऽस्मिन्रचितः सृष्टिकर्मणि ||२३||
तथानुलोमकलिता ब्रह्मांडे ब्रह्मकोटयः |
सार्द्धत्रिकोटिसंख्यानां विरिंचीनामपि प्रभो ||२४||
नैकोऽपि तत्त्वतो वेत्ति यथाहं त्वत्पुरः स्थितः |
नमोचिंत्यमहिम्ने ते चिद्रूपाय नमोनमः ||२५||
नमो देवाधिदेवाय देवदेवाय ते नमः |
दिव्यादिव्यस्वरूपाय दिव्यरूपाय ते नमः ||२६||
जरामृत्युविहीनाय मृत्युरूपाय ते नमः |
ज्वलदग्निस्वरूपाय मृत्योरपि च मृत्यवे ||२७||
प्रपन्नमृत्युनाशाय सहजानंदरूपिणे |
भक्तिप्रियाय जगतां मात्रे पित्रे नमो नमः ||२८||
प्रणतार्तिविनाशाय नित्योद्योगिन्नमोऽस्तु ते |
नमोनमस्ते दीनानां कृपासहजसिंधवे ||२९||
पराय पररूपाय परंपाराय ते नमः |
अपारपारभूताय ब्रह्मरूपाय ते नमः ||स्कन्दपुराण:२:२:२७:३०||
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ॐ परमात्मने नमः ||


३० नवम्बर २०१८ 

2 comments:

  1. जब परमात्मा ही कर्ता है तो भोक्ता भी परम्मात्मा ही है| हमारा अज्ञान ही हमें कर्ता-भोक्ता बनाता है,अन्यथा हम अकर्ता और अभोक्ता हैं| सारे दुःखों का मूल कारण राग-द्वेष है| जीव राग द्वेष आदि से प्रयुक्त होकर घर्म और अधर्म करता है और फिर उसका फल भोगने के लिए मरता और जन्मता है| गुरु कृपा से जिसने यह जान लिया कि शरीर आदि से मैं भिन्न हूँ, वह बच जाता है|
    ॐ ॐ ॐ ||

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  2. लगता है अब भगवान को ही मुझसे प्रेम हो गया है, इसीलिये अपना स्थायी डेरा-डंडा इस हृदय में डाल दिया है, हर समय अपनी उपस्थिति का बोध कराते रहते हैं| मुझ निराश्रय को भी एक आश्रय मिल गया है, अन्य कोई ठिकाना नहीं है| जैसी भी उनकी इच्छा हो वह पूर्ण हो|
    ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

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