Saturday 19 October 2019

जगन्माता सदा हमारे कूटस्थ चैतन्य में रहें, हम स्थितप्रज्ञ हों .....

जगन्माता सदा हमारे कूटस्थ चैतन्य में रहें, हम स्थितप्रज्ञ हों .....
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"स्थितप्रज्ञता" ..... साधना की उच्चतम अवस्था है जहाँ हम परमात्मा से साक्षात्कार करने लगते हैं| स्थितप्रज्ञ होने के लिए वीतराग होना आवश्यक है| जो राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त है वह वीतराग है| कुछ मतों का उच्चतम ध्येय ही वीतरागता है| वीतराग होने के साथ साथ जब हम अनुद्विग्नमन और विगतस्पृह होकर भय व क्रोध से भी मुक्त हो जाते हैं, तब हम स्थितप्रज्ञ हैं| स्थितप्रज्ञ व्यक्ति ही वास्तविक "मुनि" और "सन्यासी" है| गीता में भगवान कहते हैं....
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||"
अर्थात दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है||
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स्थितप्रज्ञता ही माया के प्रभाव से मुक्त करती है| हमें ऐसे स्थितप्रज्ञ महात्माओं की सेवा करनी चाहिए, इसका बड़ा पुण्य है| ऐसे महात्माओं की सेवा करते करते हम स्वयं भी वीतराग बन जाते हैं| योगदर्शन का एक सूत्र इस बात की पुष्टि करता है| वह सूत्र है ..... "वीतराग विषयम् वा चित्तम् ||१:३७||"
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रामचरितमानस के अरण्य कांड में सबरी को भगवान श्रीराम कहते हैं .....
"मम दरसन फल परम अनूपा | जीव पाव निज सहज सरूपा ||"
यह बहुत ही सुंदर प्रसंग है जिसे मैं विषय से भटक नहीं जाऊँ इसलिए नहीं लिख रहा|
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जगन्माता कुछ भी बनाए, कहीं भी रखे, कोई फर्क नहीं पड़ता| पर वे सदा निरंतर हमारे कूटस्थ चैतन्य में रहें| बस यही अभीप्सित है| उनकी चेतना में हम स्वयं भी परमशिव हैं| जगन्माता के प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ चाहिए भी नहीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ अक्टूबर २०१९

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