मेरी हर साँस परमात्मा की साँस है। मेरे माध्यम से पूरा ब्रह्मांड, समस्त सृष्टि, और स्वयं परमात्मा साँसें ले रहे हैं। मेरा अस्तित्व सम्पूर्ण सृष्टि का, और स्वयं परमात्मा का अस्तित्व है। जिनके संकल्प मात्र से इस समस्त सृष्टि की रचना हुई है, मैं उन परमशिव के साथ एक हूँ।
"ॐ नमः शम्भवाय च, मयोभवाय च, नमः शंकराय च, मयस्कराय च, नमः शिवाय च, शिवतराय च॥"
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभि र्व्यशेम देवहितं यदायुः
स्वस्ति न इन्द्रो वॄद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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भगवान की भक्ति वीरों का काम है। जो वीर नहीं, उससे भक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वह प्रेम से नहीं, डर से बंधा है। श्रुति भगवती तो कहती है --
"अहं इन्द्रो न पराजिग्ये" अर्थात मैं इंद्र हूँ, मेरा पराभव नहीं हो सकता।
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श्रुति भगवती के अनुसार बलहीन व प्रमादी को भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती --
"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात्।"
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शौनक ऋषि ने महर्षि अंगिरस से जाकर पूछा कि वह कौन है, जिसके जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है? महर्षि अंगिरस ने शौनक को 'परा-अपरा' विद्या के बारे में बताया जिन्हें जानने के पश्चात किसी अन्य को जानने की आवश्यकता नहीं रहती है।
अपरा - यौगिक साधना है, और परा - अध्यात्मिक ज्ञान है।
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ब्रह्म यानि परमात्मा) निरंतर ब्रह्ममय आचरण को ब्रह्मचर्य कहते हैं। जिसका आचरण और चेतना निरंतर ब्रह्ममय है, वही ब्रह्मचारी है। ब्रह्मचर्य का व्रत देवताओं को भी दुर्लभ है। जो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते, उन्हें अपने अगले जन्मों में इसका अवसर मिलेगा।
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जो साधक परमात्मा को प्राप्त होना चाहते हैं, उन्हें अपने विचारों और आचरण को शुद्ध रखना और नियमित गहन ध्यान-साधना करना आवश्यक है| लिखते लिखते बात जब - आत्मतत्व, आत्मज्ञान, वेदान्त, पारब्रह्म व परमशिव तक आ पहुँची है, तो अब लिखने को बचा ही क्या है? अब तो सिर्फ मौन ही मौन, एकांत ही एकांत, और ध्यान ही ध्यान-साधना बची है; अन्य कुछ भी नहीं।
जब लक्ष्य ही आत्मानुसंधान है तब सब कुछ हरिःइच्छानुसार ही होगा।
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सारी अभीप्साएँ तृप्त हों, सारे भटकाव समाप्त हों, सारी अपेक्षाओं व कामनाओं का अंत हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अगस्त २०२१
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