"कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान" और "ऊर्ध्वमूल" का रहस्य ---
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यह मेरा सबसे प्रिय विषय है, जिससे आगे की मैं सोच भी नहीं सकता। आध्यात्म में पुरुष शब्द का प्रयोग भगवान विष्णु के लिए होता है जो पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हैं। वे ही परमशिव हैं। पुरुषोत्तम शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण या भगवान श्रीराम के लिए होता है। लौकिक और आध्यात्मिक दृष्टि से वे ही पुरुषोत्तम हैं। कूटस्थ शब्द भगवान श्रीकृष्ण का है जो स्वयं कूटस्थ हैं। वे सर्वत्र हैं पर कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होते, इसलिए वे कूटस्थ हैं।
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योगी महात्मा "कूटस्थ" शब्द का प्रयोग उस ब्रह्मज्योति के लिए करते हैं जो गुरुकृपा से उनके समक्ष भ्रूमध्य में ध्यान करते करते सूक्ष्म जगत में प्रकट होती है। इसे वे ज्योतिर्मयब्रह्म भी कहते हैं, और शब्दब्रह्म भी, क्योंकि उस ब्रह्मज्योति से प्रणव की ध्वनि निःसृत होती रहती है, जिसके दर्शन और श्रवण करते करते वे स्वयं ब्रह्ममय हो जाते हैं।
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जब श्रीगुरुचरणों में आश्रय मिल जाता है, तब उस कूटस्थ ज्योति का केंद्र सहस्त्रार में हो जाता है। सहस्त्रार में कूटस्थ ज्योति के दर्शन का अर्थ है -- श्रीगुरुचरणों में आश्रय मिल गया है। सहस्त्रार में श्रीगुरुचरणों का ज्योतिर्मय रूप में ध्यान करते करते आगे के द्वार अपने आप खुल जाते हैं, और कहीं पर भी कोई अंधकार नहीं रहता।
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सिद्ध गुरु और परमात्मा की कृपा से साधक को जब विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगें, तब मान लीजिए कि उस की पदोन्नति हो गई है और वह स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर के कॉलेज में आ गया है। उस समय से उस विस्तार का ही ध्यान कीजिए कि आप स्वयं वह अनंत विस्तार हैं, यह नश्वर देह नहीं। आपको कूटस्थ ज्योति के दर्शन, और नाद का श्रवण स्वतः ही हरिःकृपा से होता रहेगा। यह साधना की एक बहुत उन्नत अवस्था है। यह अवस्था साधक को भगवान से मिला देती है। विस्तार की अनुभूति से वैराग्य जागृत होता है।
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एक दिन साधक पाता है कि वह अनंत विस्तार से भी परे चला गया है और उस ब्रह्मज्योति के साथ एक है। उस ब्रह्मज्योति में भगवान परमशिव का, या भगवान विष्णु का या उनके अवतार भगवान श्रीराम या भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान कीजिए। यह भाव रखिए कि आप स्वयं सर्वव्यापक ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं, यह नश्वर देह नहीं। हर साँस के साथ इस भावना को दृढ़ करते रहें। यह साधना -- अजपाजप, हंसःयोग, व हंसवतिऋक कहलाती है। नाद का श्रवण करते करते स्वयं की पृथकता के बोध का उसमें विलय कर देना लययोग कहलाता है।
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ध्यान में शिवलिंग के दर्शन भी ज्योतिर्मय रूप में होते हैं। उसका रहस्य यहाँ बता देता हूँ। शिव का अर्थ है -- परम मंगल और परम कल्याणकारी। लिंग का अर्थ है जिसमें सब का विलय हो जाता है। शिवलिंग का अर्थ है वह परम मंगल और परम कल्याणकारी परम चैतन्य जिसमें सब का विलय हो जाता है। सारा अस्तित्व, सारा ब्रह्मांड ही शिव लिंग है। स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में, और कारण जगत का सभी आयामों से परे "तुरीय चेतना" में विलय हो जाता है। उस तुरीय चेतना का प्रतीक है -- शिवलिंग, जो साधक के कूटस्थ यानि ब्रह्मज्योति में निरंतर जागृत रहता है। सर्वव्यापी ज्योतिर्मय शिव को परमशिव भी कहते हैं जिन के ध्यान से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है। अनंतता से भी ऊपर के ध्यान में दिखाई देने वाले पञ्चकोणीय विराट श्वेत नक्षत्र को मैं परमशिव कहता हूँ। मेरे लिए वे ही पंचमुखी महादेव हैं।
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जो कुछ भी मैंने यहाँ लिखा है उससे यदि कोई दोष, पाप, या अधर्म हुआ है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी मेरी है। उसके लिए मैं कोई भी दंड भुगतने को तैयार हूँ। मेरी आप सब से इतनी ही प्रार्थना है कि आप अपने मेरुदंड को सदा उन्नत, और भ्रूमध्य में एक ज्योति का बोध सदा बनाए रखें। वह ज्योति ही कूटस्थ सूर्यमंडल है, जिसमें आप सदा पुरुषोत्तम का ध्यान करें। यह कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान है। यह मेरा सबसे प्रिय विषय है जिस पर मैं लिख रहा हूँ। इसी की चेतना में मुझे आनंद मिलता है, अन्यत्र कहीं भी नहीं। यही मेरी साधना है और यही मेरा जीवन है।
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यह ज्योतिर्मय ब्रह्म ही आप स्वयं हैं। इस का ध्यान करते करते आप हजारों करोड़ किलोमीटर ऊपर अनंत में इस सृष्टि से भी ऊपर उठ जाइए, और भी ऊपर उठ जाइए जहाँ तक आपकी कल्पना जाती है। इस अनंत ब्रह्मांड से भी ऊपर उच्चतम स्थान पर ऊर्ध्वमूल है वहीं पर स्थित होकर आप भगवान का ध्यान कीजिए। इसी के बारे में गीता में भगवान कहते हैं --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल सङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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जितना लिखने की प्रेरणा और आदेश मुझे मेरी अन्तर्रात्मा से मिला उतना लिख दिया। और लिखने का आदेश नहीं है। आप सब में भगवान वासुदेव को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मई २०२३
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