संसार के सारे बंधनों का कारण -- हमारी चित्त की वृत्तियाँ ही हैं। ये चित्त की वृत्तियाँ क्या होती हैं? इनसे मुक्त कैसे हों? ---
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हमारी वासनाएँ (आकांक्षाएँ/कामनाएँ/इच्छाएँ/अभिलाषाएँ) और तरह तरह के विचार ही चित्त की वृत्तियाँ हैं। हमारी साँसें भी चित्त की ही एक वृत्ति है।
ऋषि पतंजलि ने इन चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है -- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥१.२॥
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने समत्व को योग बताया है और वे निस्त्रेगुण्य होने का उपदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
"यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥२:४६॥"
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२:४७॥"
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
"दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२:४९॥"
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२:५०॥"
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भगवान श्रीकृष्ण ने तो गागर में सागर भर दिया है। कहने को कोई बात छोड़ी ही नहीं है। अभी समस्या एक ही बची हुई है कि हम करें क्या? क्योंकि घूम-फिर कर वहीं आ जाते हैं जहां से चले थे। भगवान ने इसका उपाय भी गीता में बताया है लेकिन लेख का विस्तार न हो, इसलिए संक्षेप में मैं ही कुछ कहकर इस लेख को समाप्त करता हूँ।
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दिन-रात निरंतर भगवान का चिंतन करो। अपना पूरा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) उन्हें बापस सौंप दो। यही वासनाओं पर वास्तविक विजय है, बाकी सब भटकाव है। चित्त जिस भावना में तन्मय होता है, उसी स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। चित्त की वृत्तियाँ जब परमात्मा में लीन होने लगती हैं तब सारे संकल्प तिरोहित होने लगते हैं। यही चित्तवृत्ति निरोध है।
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परमात्मा के लिए अभीप्सा और परमप्रेम जागृत करें। इन्द्रियों के द्वारा सांसारिक सुख लेने की इच्छा ही हमें बंधनों में डालती हैं। ये तुच्छ इच्छाएँ जितनी प्रकट होती है, मनुष्य उतना ही अन्दर से तुच्छ होता जाता है। और जितना इच्छाओं का त्याग करता है उतना ही वह महान् होता जाता है। हमारे पतन का कारण इच्छाओं की पूर्ति में लग जाना, छोटी-छोटी वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाना, तथा छोटी-छोटी बातों में उलझ जाना है। अन्तःकरण में जितनी अधिक वासनाएँ होंगी, उतना ही वह भीतर से कमजोर होगा। भीतर की कमजोरी ही बाहर की कमजोरी है। चित्त से इच्छाओं की निवृत्ति ही हमें महान बनाती हैं। यही चित्त-वृत्तियों का निरोध है और यही योगमार्ग का आरंभ है। यह संभव है। गीता में भगवान कहते हैं --
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६:३५॥"
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परमात्मा का निरंतर चिंतन करें। तत्पश्चात् सारा बोझ वे स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं। पुराण-पुरुष श्रीकृष्ण पद्मासन में स्वयं का ध्यान कर रहे हैं। उनसे अन्य इस पूरी सृष्टि में कुछ है ही नहीं। उन्हीं का निरंतर ध्यान करें।
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर बावलिया
झुंझुनू (राजस्थान)
१० मई २०२२
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