>>> जीवन में हम एक-दूसरे के रूप में स्वयं से ही मिलते रहते हैं। हम सब में जो व्यक्त है, वही परमात्मा है। हम उन के साथ एक हैं।
>>> परमात्मा का ध्यान और उससे प्राप्त आनंद सर्वोच्च सत्संग है।
>>> सूक्ष्म देह में मेरुदंडस्थ सुषुम्ना नाड़ी ही पूजा की वेदी और मंडप है, जहाँ भगवान वासुदेव स्वयं बिराजमान हैं।
>>> कुंडलिनी महाशक्ति का सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र से भी ऊपर उठकर अनंत महाकाश से परे परमशिव से स्थायी मिलन जीवनमुक्ति और मोक्ष है। यही अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना है।
>>> जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, उसी समय हमारा स्वयं का पिंडदान हो जाता है। मूलाधारस्थ कुंडलिनी "पिंड" है। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना स्वयं का श्राद्ध है।
>>> अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना मोक्ष है। परब्रह्म ही जीव और जगत् के सभी रूपों में व्यक्त है। वही जीवरूप में भोक्ता है और वही जगत रूप में भोग्य।
>>> आत्मा शाश्वत है। जीवात्मा अपने संचित व प्रारब्ध कर्मफलों को भोगने के लिए बार-बार पुनर्जन्म लेती है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है। जब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती तब तक संचित और प्रारब्ध कर्मफलों से कोई मुक्ति नहीं है। ये सनातन नियम हैं जो इस सृष्टि को चला रहे हैं। यह हमारा सनातन धर्म है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ सितंबर २०२३
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