कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है; हे मेरे मन, स्वयं को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन मत कर --
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अब यह शरीर रहे या न रहे, इसका कोई महत्व नहीं है, महत्व एक ही बात का है -- ईश्वर की हर पल स्वयं में अभिव्यक्ति हो। अब यही मेरा कर्तव्य-कर्म है।
भगवान कहते हैं --
"अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है॥
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मैं कोई संकल्प नहीं करता, परमात्मा को स्वयं के माध्यम से प्रवाहित ही होने देता हूँ; और कुछ नहीं करता। कर्म और शम ही मेरे साधन हैं। इस समय भगवान से मेरी एक ही प्रार्थना है --
"इस लोभ और तृष्णा से मुक्त कर, आप मुझे नित्य प्राप्त हों। मुझे आपकी सहायता चाहिये। मुझे निरंतर कूटस्थ-चैतन्य में रखो, मेरा अंतःकरण सर्वदा आत्मा में स्थिर रहे। आप ही मेरे परम लक्ष्य हो। मेरा चित्त आप में स्थित होकर सदा निःस्पृह रहे।" ॥ ॐ ॐ ॐ॥
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भगवान कहते हैं --
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥"
योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।
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भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
"सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६:३१॥"
जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
जो पुरुष एकत्वभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझमें स्थित रहता है॥
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अभ्यास और वैराग्य -- भगवान इन दोनों की ही आवश्यकता बताते हैं। वैराग्य तो बहुत सारे पुण्य कर्मों के फलों से प्राप्त होता है। यह भगवान का एक विशेष अनुग्रह है। अब भगवान के बिना एक पल भी नहीं रह सकते। जीवन की सबसे बड़ी और तुरंत आवश्यकता भगवान स्वयं हैं। हम निरंतर भगवान का ही अनुसंधान करें और भगवान में ही स्थित रहें। हमारा हरेक कर्म भगवान को समर्पित हो। अंत में यही कहूँगा --
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
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"ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते| पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा वशिष्यते|"
ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यंकरवावहै तेजस्वि नावधीतमस्तु माविद्विषावहै|| ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः||
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ दिसंबर २०२४
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