पंजाबी सिख पादरी "साधु सुंदर सिंह" और पंजाब में उसका प्रभाव ---
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ईसाईयत की बड़ी गहरी नींव 'साधु सुंदर सिंह' नाम के एक सिख पादरी ने डाली थी, उसी का परिणाम है कि आज पूरे पंजाब में ईसाईयत का जबरदस्त बोलबाला है। पादरी लोग बड़े प्रेम और धैर्य से उसकी कथा सुनाते हैं जिसका सार इस प्रकार है ---
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"सुंदर सिंह का जन्म एक सिख परिवार में ३ सितंबर १८८९ को पंजाब में लुधियाना जिले के रामपुर कटानिया नामक गाँव में हुआ था। १४ वर्ष की आयु में उसकी माता का देहांत हो गया तो अवसादग्रस्त होकर उसने रेलगाड़ी के सामने कूदकर आत्महत्या का प्रयास किया। कहते हैं कि जब वह चलती ट्रेन के आगे कूदा तो जीसस क्राइस्ट प्रकट हुए और उसका हाथ पकड़कर खींच लिया व आत्महत्या नहीं करने दी। सुंदर सिंह ने अपने पिता शेर सिंह को बताया कि अब से वह ईसाई पादरी बन कर जीवन भर जीसस क्राइस्ट की सेवा करेगा। उसके पिता ने उसे मनाने का पूरा प्रयास किया पर वह नहीं माना। उसके भाई ने उसे मारने के लिए धोखे से जहर दिया पर जहर का कोई असर नहीं हुआ। गाँव वालों ने उसे मारने के लिए उस पर जहरीले सांप फेंके, पर सांपों ने अपने स्वामी को उसमें देखा और काटने से मना कर दिया। एक अंग्रेज पादरी ने वहाँ आकर उसे संरक्षण दिया और अपने साथ शिमला के एक चर्च में ले गया। शिमला में उसने जीसस क्राइस्ट को प्रसन्न करने के लिए कोढ़ियों की खूब सेवा की। उसके १६वें जन्मदिवस पर शिमला के एक चर्च में विधि-विधान से उसे ईसाई मजहब की दीक्षा दी गई और पहिनने के लिए हिन्दू साधुओं के गेरुआ वस्त्र दिए गए। उसका काम था हिन्दू साधु के वेश में हिन्दू नाम से ईसा मसीह का प्रचार करना।"
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अक्टूबर १९०६ में हिन्दू नाम (साधु सुंदर सिंह) से हिन्दू साधु के वेश में उसने ईसा मसीह का प्रचार कार्य आरंभ किया, और बहुत अधिक सफल हुआ। उसने पंजाब, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर, अफगानिस्तान और बलूचिस्तान में हजारों हिंदुओं को ईसाई बनाया। मुस्लिम क्षेत्रों में वह कई बार गिरफ्तार भी हुआ और लोगों ने उस पर पत्थर भी फेंके, लेकिन उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाए क्योंकि देश पर अंग्रेजों का राज था, और अंग्रेजी शासन का अति गोपनीय तरीके से उसे संरक्षण प्राप्त था। लोग यही सोचते थे कि जीसस क्राइस्ट हर समय उसकी रक्षा करते हैं। १९०८ में वह तिब्बत गया पर वहाँ की ठंड उससे सहन नहीं हुई, तो वह मुंबई आ गया। मुंबई मे उसने फिलिस्तीन जाने के लिए अनुमति मांगी। लेकिन ब्रिटिश चर्च ने उसे बापस पंजाब भेज दिया।
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उसका उद्देश्य भारत का ईसाईकरण करना था। वह चाहता था कि चर्च के पादरी, हिन्दु साधुओं की तरह हिंदु वेश में रहें। लाहौर में पूरे प्रयास के बावजूद भी उसकी नहीं चली। लाहोर के हिन्दू विद्यार्थी उससे प्रभावित नहीं हुए। पूरे भारत में उस समय लाहौर सबसे अधिक पढे-लिखे लोगों का नगर था।
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१९१२ में वह बापस कश्मीर और तिब्बत गया। उसके बारे में बहुत सारी कहानियाँ फैलाई गईं हैं कि हिमालय में कैलाश पर्वत की एक गुफा में उसने ३०० वर्ष की आयु के एक साधु के साथ तपस्या की। उसके बारे में यह कहानी भी फैलाई गई कि स्वयं भगवान ने उसे दर्शन दिये, जिनके साथ भी वह रहा। उसके बारे में यह कहानी भी फैलाई गई कि तिब्बत में कुछ लोगों ने मारने के लिए उसे एक अंधे कुएँ में फेंक दिया लेकिन उसका कुछ नहीं बिगड़ा। वर्षों पहिले एक पादरी ने मुझे बड़े प्रेम से उसकी एक जीवनी भेंट में दी थी। पता नहीं वह पुस्तक अब कहाँ है। उसमें साधु सुंदर सिंह को भारत का एक महान संत बताया गया था जिसने अपने जीवन में अनेक चमत्कार दिखाये। यह भी मुझे बताया गया था कि उसके जैसे अनगिनत ईसाई प्रचारक हिंदु-साधुवेश में पूरे भारत में फैले हुए हैं।
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ईसाई 'साधु सुंदर सिंह' ने अपनी हाथ से कोई पुस्तक या साहित्य नहीं लिखा। लेकिन उसके समय में उसका प्रभाव पूरे पंजाब में बड़ा जबर्दस्त था। पादरी लोग बताते हैं कि वह जीसस क्राइस्ट की तरह ही लगता था और उन्हीं की तरह उन्हीं की भाषा में बोलता था। कपड़े भी वह जीसस क्राइस्ट की तरह ही पहिनने लगा था। १९१८ में उसने दक्षिण भारत और सीलोन (श्रीलंका) की यात्रा भी की थी। उसे बर्मा, मलाया, चीन और जापान के चर्चों ने भी निमंत्रण दिया था।
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उसकी इच्छा ब्रिटेन जाने की थी, जो तब पूरी हुई जब उसके पिता शेर सिंह ने भी सिख पंथ छोड़कर ईसाई मज़हब अपना लिया और अपना सारा धन भी उसे दे दिया। उसने १९२० और १९२२ में दो बार ब्रिटेन, यूरोप, अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया की यात्राएँ कीं। ईसाइयों के सभी संप्रदायों ने उसका स्वागत एक महान संत के रूप में किया। भारत में बापस आकर वह अपने काम में जुट गया। १९२३ में उसने तिब्बत की आखिरी यात्रा की, और वहाँ से बीमार होकर बापस आया। फिर १९२९ तक शिमला के पास एक आश्रम सा बनाकर रहा। मित्रों की सलाह पर उसने एक बार और तिब्बत जाने का निर्णय लिया। उसे अंतिम बार १८ अप्रेल १९२९ को कालका में कुछ साधुओं के साथ देखा गया। फिर उसका कुछ भी पता नहीं चला। किसी अज्ञात स्थान पर अज्ञात साधु के रूप में ही उसका कहीं देहांत हो गया।
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सन १९४० में मद्रास के एक पादरी बिशप अगस्टिन पीटर्स ने उसके भाई राजिंदर सिंह को ढूंढकर ईसाई बना दिया। राजिन्दर सिंह ने भी ईसाई धर्म-प्रचारक बनकर सैंकड़ों हिंदु व सिखों को ईसाई बनाया। इन दोनों भाइयों को भारत के ईसाई इतिहास में अति महान बताया गया है, जिन्होंने अनगिनत हजारों हिंदुओं व सिखों को ईसाई बनाकर जीसस क्राइस्ट की सेवा की।
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कुछ भी हो ये ईसाई प्रचारक अपनी चंगाई सभाओं में कोरोना बीमारी को तो दूर नहीं कर पाये। कुछ प्रशिक्षित नाटकबाज महिलाओं और पुरुषों को मंच पर लाकर जबरदस्त नाटकबाजी कर के भोले-भाले हिंदुओं को भ्रमित कर ईसाई बना देते हैं। आजकल ईसाई मिशनरियों ने पंजाब में अपना पूरा जोर लगा रखा है।
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यह लेख कुछ अधिक ही बड़ा हो गया है। इससे अधिक छोटा लिखना संभव ही नहीं था। आपने बड़े धैर्य से इसको पढ़ा, जिसके लिए आप सब को नमन।
राम राम !! ॐ तत्सत् !!
२७ दिसंबर २०२१
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