सत्य की अनुभूति तो स्वयं को ही करनी होगी ---
.
मैं भगवान को धन्यवाद देना चाहता हूँ कि उन्होंने सगे-संबंधियों, शत्रु-मित्रों, व परिचितों-अपरिचितों के रूप में आकर मेरा सदा मार्गदर्शन, प्रोत्साहन, प्रेरणा, शक्ति, और बहुत ही अच्छा साथ दिया है। जीवन में अच्छे-बुरे जो भी लोग मिले, वे सब भगवान के ही रूप थे। अच्छे-बुरे सारे अनुभव भी भगवान का ही प्रसाद था। मुझे सही मार्ग पर चलने का प्रोत्साहन और प्रेरणा सदा मिलती रही है। कोई कमी थी तो मुझ में ही थी, दूसरों में नहीं। मैं सभी का कृतज्ञ हूँ।
.
भगवान की पूरी कृपा मुझ अकिंचन पर सदा बनी रही है। जितनी मेरी पात्रता थी, उससे बहुत ही अधिक आध्यात्मिक अनुभूतियाँ, ज्ञान और भक्ति भगवान ने मुझे प्रदान की हैं। आध्यात्मिक भावभूमि पर किसी भी तरह का कोई संशय और शंका मुझे नहीं है, सारी अवधारणाएँ स्पष्ट हैं। मेरी हिमालय से भी बड़ी-बड़ी भूलों की भी भगवान ने उपेक्षा की है। उनके कृपासिंधु में वे छोटे-मोटे कंकर-पत्थर से अधिक नहीं हैं, जो वहाँ भी शोभा दे रहे हैं। अब पूरा जीवन भगवान को समर्पित है, जो भगवान के साथ ही बीत जाएगा। कोई कामना अवशिष्ट नहीं है। भगवान हैं, अभी है, इसी समय हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र और सर्वदा मेरे साथ हैं। मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए।
.
हमें नित्य कम से कम तीन घंटे तक पूरी सत्यनिष्ठा से आध्यात्मिक साधना करनी ही होगी, तभी हम भगवान के उपकरण बन सकेंगे। तभी हम राष्ट्र और धर्म की रक्षा कर सकेंगे। बड़ी बड़ी बातों में कुछ नहीं रखा है। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। जो धर्म की रक्षा करेगा, धर्म उसी की रक्षा करेगा।
.
आध्यात्म में कमाई स्वयं की ही काम आएगी, दूसरों की नहीं। साधना के उत्तुंग शिखरों पर चढ़ कर उनके पार देखने और बाधाओं के विशाल महासागरों को पार करने वाले ही आगे के दृश्य देख पायेंगे और विजयी होंगे। सुनी-सुनाई बातों और दूसरों के अनुभवों में कुछ नहीं रखा है; इनसे हमें सिर्फ प्रेरणा ही मिल सकती है। सत्य की अनुभूति तो स्वयं को ही करनी होगी। जितना परिश्रम करोगे, भगवान से उतना ही अधिक पारिश्रमिक मिलेगा। बिना परिश्रम के कुछ भी नहीं मिलेगा। भगवान भी अपना अनुग्रह उन्हीं पर करते हैं जो परमप्रेममय होकर उनके लिए परिश्रम करते हैं। मेहनत करोगे तो मजदूरी भी मिलेगी। संसार भी हमें मेहनत के बदले मजदूरी देता है, तो फिर भगवान क्यों नहीं देंगे? संत तुलसीदास जी ने कहा है --
"तुलसी विलम्ब न कीजिए भजिये नाम सुजान।
जगत मजूरी देत है क्यों राखे भगवान॥"
.
अधिकांश लोग संत-महात्माओं के पीछे पीछे इसलिए भागते हैं कि संभवतः संत-महात्मा अपनी कमाई में से कुछ दे देंगे, पर ऐसा होता नहीं है। संत-महात्मा अधिक से अधिक हमें प्रेरणा दे सकते हैं, मार्गदर्शन कर सकते हैं, और सहायता कर सकते हैं, इस से अधिक नहीं। वे अपनी कमाई यानि अपना पुण्य किसी को क्यों देंगे? पुण्यार्जन के लिए परिश्रम तो स्वयं को ही करना होगा।
.
सभी को मंगलमय शुभ कामना और नमन !! भगवान की परम कृपा आप सब पर बनी रहे।
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ दिसंबर २०२१
No comments:
Post a Comment