आत्म राज्य .....हमारी स्वाधीनता और स्वतन्त्रता .......
कभी हम भी एक चक्रवर्ती सम्राट थे, हमारी भी एक महान सत्ता थी और हम अपने विशाल साम्राज्य के स्वामी थे जिसको चुनौती देने वाला कोई नहीं था| यह सत्य है| वह राज्य था --- हमारा "आत्म राज्य"|
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पर अब हम अपना सब कुछ खो चुके हैं और "स्वाधीन" भी नहीं रहे हैं|
हमारा "स्वराज्य" भी नहीं रहा है|
क्या हम अपने खोये हुए राज्य को पुनश्चः प्राप्त कर सकेंगे?
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निश्चित रूप से -- "हाँ" | क्योंकि अब परमशिव परब्रह्म परमात्मा की इच्छा है कि हम अपने खोये हुए "महान साम्राज्य" को प्राप्त करें और पुनश्चः उसके "स्वामी" बनें| उनकी इच्छा हमें स्वीकार करनी ही पड़ेगी|
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वासनाओं व कामनाओं के कारण ही हम अपना "आत्म राज्य" और "स्वाधीनता" खो बैठे और "पराधीन" हो गए| अन्यथा हम भी "स्वतंत्र" थे| अपने "आत्म तत्व" को भूलकर हम अपने इस देह रुपी वाह्न की चेतना से जुड़कर यह भूल गये कि यह तो इस लोकयात्रा का एक साधन मात्र है|
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जिस आनंद को हम अब तक ढूँढ रहे थे वह आनंद तो हम स्वयं हैं| हम यह देह नहीं हैं|
पिता की संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है| हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं अतः परमशिव परब्रह्म परमात्मा के परम प्रेम और पूर्णता पर हमारा जन्मसिद्ध पूर्ण अधिकार है|
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परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा घर है, और उनका प्रेम ही है हमारा अस्तित्व| परमात्मा का ऐश्वर्य ही हमारा भी ऐश्वर्य है| उनका "शिवत्व" ही हमारा साम्राज्य है जिसके लिए हमें सभी कामनाओं और वासनाओं से मुक्त हो कर, परम प्रेममय होकर उसे प्राप्त करना ही होगा|
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इतना महान राज्य हमने एक क्षण में इस देह के नाम रूप मोह और वासनाओं के वशीभूत होकर त्याग दिया| यही हमारे तापों का कारण है|
उस खोए हुए महान साम्राज्य को हम उपलब्ध होंगे, निश्चित रूप से होंगे क्योंकि वही हमारा अस्तित्व है|
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अयमात्मा ब्रह्म | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.१ वि.स.२०७२, 25 जनवरी 2016
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