गुरु प्रदत्त साधना ही करनी चाहिए ......
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जब ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और अभीप्सा जागृत होती है, तब जीवन में सद्गुरु के रूप में परमात्मा का अवतरण निश्चित रूप से होता है| इसमें कोई संदेह नहीं है|
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गुरु ही जिज्ञासु को पात्रता के अनुसार साधना का सही मार्ग दिखाता है|
एक विद्यार्थी चौथी कक्षा में पढ़ता है, एक दसवीं में, एक कॉलेज में, और किसी ने पढाई आरम्भ ही की है; इन सब की पढाई एक जैसी नहीं हो सकती| सब को अपनी अपनी पात्रता और योग्यता के अनुसार ही प्रवेश और अध्ययन का विषय मिलता है|
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इसी तरह सब की साधना भी एक जैसी ही नहीं हो सकती| एक सद्गुरु ही यह निर्णय कर सकता है कि किस साधक के लिए कौन सी साधना उचित है|
अतः सदा गुरु प्रदत्त साधना ही करनी चाहिए, और वह भी गुरु को समर्पित होकर| इससे साधना में कोई भूल होने पर गुरु महाराज उसका शोधन कर देते हैं|
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गुरु को सामान्य मनुष्य मानना अज्ञानता है| साधक को अपनी साधना हेतु गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए| यह आवश्यक नहीं है कि गुरु भौतिक देह में ही हो| कई बार पूर्व जन्मों के गुरु भी सूक्ष्म देह में आकर जिज्ञासु साधक का मार्गदर्शन करते हैं| जब तक गुरुलाभ नहीं होता तब तक भगवान ही गुरु हैं|
हर किसी को गुरु नहीं बनाना चाहिए| गुरु एक ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य ही हो सकता है जिसने परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया हो| इसका पता परमात्मा की कृपा से तुरंत चल जाता है| जब हम भगवान को ठगना चाहते हैं तो हमें ठगगुरु मिल जाते हैं| श्रद्धावान को सदा सद्गुरु ही मिलते हैं|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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जब ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और अभीप्सा जागृत होती है, तब जीवन में सद्गुरु के रूप में परमात्मा का अवतरण निश्चित रूप से होता है| इसमें कोई संदेह नहीं है|
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गुरु ही जिज्ञासु को पात्रता के अनुसार साधना का सही मार्ग दिखाता है|
एक विद्यार्थी चौथी कक्षा में पढ़ता है, एक दसवीं में, एक कॉलेज में, और किसी ने पढाई आरम्भ ही की है; इन सब की पढाई एक जैसी नहीं हो सकती| सब को अपनी अपनी पात्रता और योग्यता के अनुसार ही प्रवेश और अध्ययन का विषय मिलता है|
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इसी तरह सब की साधना भी एक जैसी ही नहीं हो सकती| एक सद्गुरु ही यह निर्णय कर सकता है कि किस साधक के लिए कौन सी साधना उचित है|
अतः सदा गुरु प्रदत्त साधना ही करनी चाहिए, और वह भी गुरु को समर्पित होकर| इससे साधना में कोई भूल होने पर गुरु महाराज उसका शोधन कर देते हैं|
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गुरु को सामान्य मनुष्य मानना अज्ञानता है| साधक को अपनी साधना हेतु गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए| यह आवश्यक नहीं है कि गुरु भौतिक देह में ही हो| कई बार पूर्व जन्मों के गुरु भी सूक्ष्म देह में आकर जिज्ञासु साधक का मार्गदर्शन करते हैं| जब तक गुरुलाभ नहीं होता तब तक भगवान ही गुरु हैं|
हर किसी को गुरु नहीं बनाना चाहिए| गुरु एक ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य ही हो सकता है जिसने परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया हो| इसका पता परमात्मा की कृपा से तुरंत चल जाता है| जब हम भगवान को ठगना चाहते हैं तो हमें ठगगुरु मिल जाते हैं| श्रद्धावान को सदा सद्गुरु ही मिलते हैं|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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