परमात्मा की सर्वव्यापकता पर ध्यान करने से कामनाओं का ह्रास होने लगता है ---
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हमारी कामनाएँ ही हमारे बंधन हैं जो हमें बार बार जकड़ कर इस संसार में लाते हैं। हम आत्मा की सर्वज्ञता को नहीं जानते, इसलिये कामना करते है। कामना का मूल अज्ञान है। श्रुति भगवती कहती है --
"यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥" (कठोपनिषद्/२/३/१४)
(अस्य हृदि श्रिताः सर्वे ये कामाः यदा प्रमुच्यन्ते अथ मर्त्यः अमृतः भवति। अत्र ब्रह्म समश्नुते॥)
अर्थात् -- जब मनुष्य के हृदय में आश्रित प्रत्येक कामना की जकड़ ढीली पड़ जाती है, तब यह मर्त्य (मानव) अमर हो जाता है; वह यहीं, इसी मानव शरीर में 'ब्रह्म' का रसास्वादन करता है।
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यदि यह भाव निरंतर बना रहे कि मैं तो भगवान का एक नौकर यानि दास मात्र हूँ, या मैं उनका परम प्रिय पुत्र हूँ, और जो उनकी इच्छा होगी वह ही करूँगा, या वह ही हो रहा है जो उनकी इच्छा है, तो साधन मार्ग से साधक च्युत नहीं हो सकता। या फिर यह भाव रहे कि 'मै' तो हूँ ही नहीं, जो भी हैं, वे ही हैं, और वे ही सब कुछ कर रहे हैं। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि साधना की किस उच्च स्थिति में हम हैं। परमात्मा का स्मरण सदा बना रहे। राग-द्वेष और अहंकार कामना उत्पन्न करते हैं। कामना अवरोधित होने पर क्रोध को जन्म देती है। ये काम और क्रोध दोनों ही नर्क के द्वार हैं जो सारे पाप करवाते हैं। कर्ता तो सिर्फ परमात्मा है, परमात्मा से पृथक कोई कामना नहीं हो।
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आप सब महान आत्माओं को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ॥
१९ अप्रेल २०२२
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