Saturday, 23 April 2022

त्रिगुणातीत वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण पद्मासन में शांभवी मुद्रा में ध्यानस्थ हैं ---

 मेरे में हिमालय से भी बड़ी बड़ी लाखों कमियाँ और लाखों असफलताएँ हैं। लेकिन परमप्रिय परमात्मा के महासागर में वे एक छोटे-मोटे कंकर-पत्थर से अधिक बड़ी नहीं हैं। वे वहाँ भी शोभा दे रही हैं। जब से उनसे प्रेम हुआ है, सारी कमियाँ और असफलताएँ महत्वहीन हो गई हैं। परमात्मा अनंत हैं, उनके अनंत रूप हैं, लेकिन आजकल परमात्मा का एक ही रूप सदा सामने आता है --

त्रिगुणातीत वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण पद्मासन में शांभवी मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। उन्होने खेचरी मुद्रा भी लगा रखी है और अपने स्वयं के परमशिव रूप का ध्यान कर रहे हैं। उनके सिवाय कोई अन्य है ही नहीं। वे स्वयं ही यह सारी सृष्टि बन गए हैं। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है। मेरा भी उनसे पृथक कोई अस्तित्व नहीं है।
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मुझे खेचरी मुद्रा की सिद्धि नहीं है। यह युवावस्था में सिद्ध होती है, अब इस आयु में यह असंभव है। अर्धखेचरी से ही काम चल जाता है, अतः संतुष्ट हूँ। जो युवा हैं, उन्हें खेचरी सिद्ध कर लेनी चाहिए। इसके लिए किसी हठयोग प्रशिक्षक से मार्गदर्शन लें। श्यामाचारण लाहिड़ी महाशय द्वारा बताई हुई तालव्य-क्रिया इसमें सहायक है। पद्मासन में भी आजकल मुझे कठिनाई होने लगी है। भगवान से ही प्राप्त निर्देशानुसार ध्यान के समय किसी भी परिस्थिति में कमर सीधी रहनी चाहिए, चाहे आसन कोई सा भी हो। कुर्सी पर बैठकर ध्यान करने की भी अनुमति है। कुर्सी के नीचे एक ऊनी कंबल बिछी हो तो बहुत अच्छा है।
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परमशिव की अनुभूति निज प्रयास से नहीं होती। वह किसी सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु के आशीर्वाद और कृपा से ही होती है। अतः उसके बारे में और लिखने का आदेश नहीं है। पहले कई बार लिख चुका हूँ।
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बिना भक्ति के एक कदम भी आगे की प्रगति नहीं हो सकती। अतः भक्ति और सदाचार दोनों ही आवश्यक हैं। हर तरह के कुसंग का त्याग करना पड़ता है। प्रकाश और अंधकार साथ-साथ नहीं रह सकते। जो कुवासनाओं का त्याग नहीं कर सकते उन्हें ध्यान नहीं करना चाहिए, अन्यथा वे तुरंत आसुरी शक्तियों के शिकार हो जाते हैं। वे पूर्ण भक्तिभाव से सिर्फ जपयोग ही करें।
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हिमालय से भी बहुत बड़ी-बड़ी मेरी लाखों कमियाँ और असफलताएँ भी परमात्मा के मार्ग में शोभा दे रही हैं, लेकिन मेरी दृष्टि निरंतर परमात्मा की ओर ही है। जब से परमात्मा से प्रत्यक्ष संवाद स्थापित हो पा रहा है तब से मेरी अपनी स्वयं की कमियों और विफलताओं का कोई महत्व नहीं रहा है। भगवान ही सर्वत्र हैं, उनके सिवाय कोई भी अन्य नहीं है। वे स्वयं ही स्वयं को नमन कर रहे हैं, और स्वयं ही स्वयं को आशीर्वाद भी दे रहे हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२२ अप्रेल २०२२

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