Saturday, 23 April 2022

विद्वता का अहंकार -- हमारा सबसे बड़ा आंतरिक शत्रु है ---

 विद्वता का अहंकार -- हमारा सबसे बड़ा आंतरिक शत्रु है, जो हमारी शांति को छीन कर हमें निरंतर भटकाता है। इसे तुरंत भगवान को समर्पित कर देना चाहिये। गीता में भगवान हमें निष्काम, निःस्पृह, निर्मम, और निरहंकार होने का उपदेश देते हैं --

"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति॥२:७१॥"
अर्थात् जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित, और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त करता है॥
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अब प्रश्न यह उठता है कि-- निष्काम, निःस्पृह, निर्मम और निरहंकार कैसे हुआ जाये? ये तो विरक्त सन्यासी के ही सारे गुण हैं, जो यदि संकल्प मात्र से ही आ जायें तो सारे विश्व में ही शांति का साम्राज्य छा जाये। कामनाओं और भोगों को अशेषतः त्यागना एक अति-मानवीय कार्य है, जिसके लिए निरंतर सत्संग, ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु का मार्गदर्शन, कठोर नियमित आध्यात्मिक साधना, व दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन की आवश्यकता है।
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उपरोक्त सब होने पर भी एक बहुत बड़ी बाधा हमारा सूक्ष्म अहंकार है -- कुछ जानने का, कुछ होने का, व अपनी विद्वता और श्रेष्ठता का। इस सूक्ष्म अहंकार से मुक्त होने के लिए हमें अपनी अपरा और परा प्रकृति, दोनों को समझकर, इन दोनों से ऊपर उठना पड़ेगा। यहीं पर हमें मार्गदर्शन के लिए एक सद्गुरु की आवश्यकता है जो स्वयं ब्रहमनिष्ठ व श्रौत्रीय हो।
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जैसा मुझे समझ में आया है, उसके अनुसार हमारा जीवरूप -- परा प्रकृति है, और पञ्च-महाभूत व हमारा अंतःकरण -- अपरा प्रकृति है। इन दोनों से ही ऊपर उठना पड़ेगा। गीता में और रामचरितमानस के उत्तरकांड में इसे बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है, लेकिन फिर भी सद्गुरु आचार्य का मार्गदर्शन आवश्यक है।
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हम यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं, जिसका संबंध सिर्फ परमात्मा से है। हम अनन्य भक्ति द्वारा अपना अहं भाव त्याग कर परमात्मा से जुड़ें और गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हों। अपने पाप-पुण्य और कर्मफल सब भगवान को बापस कर दें। हम पापी हों या पुण्यात्मा, अच्छे हों या बुरे, सदा परमात्मा के साथ एक हैं। पाप और पुण्य -- हमें छू भी नहीं सकते। हमारी कोई कामना, या ममता नहीं है, इस संसार में जो कुछ भी है, वह परमात्मा है, जिन से परे अन्य कुछ भी नहीं है। हम यह देह नहीं, सब गुणों से परे पारब्रह्म परमात्मा के साथ एक हैं।
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रामचरितमानस के उत्तर कांड में इसे समझाया गया है, जिसका स्वाध्याय स्वयं को ही करना होगा --
"सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी।।
अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई।।
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा।।
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बनाई।।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै।।
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ।।
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ।।
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि।।
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब।।
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अंत में यह याद रखें कि --
"सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥"
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आप सब महात्माओं को नमन !! आप सब महान आत्माएँ हैं, कोई सामान्य व्यक्ति नहीं। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२४ अप्रेल २०२१

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