मन की चंचलता कैसे दूर हो ? ...
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गीता में भगवान कहते हैं ...
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"
भगवान् कहते हैं -- हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है||
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उपरोक्त श्लोक में भगवान ने यह तो कह दिया कि अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही मन को वश में किया जा सकता है, लेकिन यहाँ पर यह नहीं बताया कि अभ्यास किस का करें, और वैराग्य कैसे हो?
भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर के अनुसार अभ्यास से अर्थात् किसी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति करने से और दृष्ट तथा अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन के अभ्यास द्वारा उत्पन्न हुए अनिच्छारूप वैराग्य से चित्त के विक्षेपरूप प्रचार ( चञ्चलता ) को रोका जा सकता है| अर्थात् इस प्रकार उस मन का निग्रह निरोध किया जा सकता है|
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यहाँ दो बातें मुझे समझ मे आई हैं| पहली बात तो यह है कि माया का विक्षेप ही मन की चंचलता है| माया के दो अस्त्र हैं जिनसे वह हमें भ्रमित करती है ... पहिला अस्त्र तो है ..."आवरण", और दूसरा है ... "विक्षेप"| यह विक्षेप ही मन की चंचलता है|
दूसरी बात यह है कि "एक समान वृत्तिकी बारंबार आवृत्ति" का अर्थ हंसःयोग या क्रियायोग की साधना ही हो सकती है|
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योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय के अनुसार मन की चंचलता का कारण प्राण-तत्व की चंचलता है| प्राणतत्व को स्थिर कर के ही मन की चंचलता को समाप्त किया जा सकता है| इस के लिए वे क्रियायोग की साधना को ही सर्वश्रेष्ठ बताते हैं| हंसःयोग भी क्रियायोग साधना का ही एक अंग है|
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ये साधनायें तो सद्गुरु के मार्गदर्शन और उन के सान्निध्य में ही करने की हैं| लेकिन एक बात याद रहे कि बिना भक्ति और सत्यनिष्ठा के कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती|
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आप सब महान आत्माओं को सप्रेम नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ नवंबर २०२०
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