हे परम शिव, अपने ध्यान से कभी विमुख मत करो ......
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ध्यान एक ऐसी स्थिति है जिसकी आनंदमय गहराई में साधक पूर्ण रूप से संतुष्ट रहता है| वहाँ असंतोष का एक कण मात्र भी नहीं रहता| कोई शिकायत नहीं, कोई निंदा व आलोचना नहीं, और कोई राग-द्वेष व अहंकार नहीं| उस स्थिति में निःसंग, असम्बद्ध और अप्रतिबद्ध रहना स्वाभाविक है क्योंकि एकमात्र अस्तित्व परमात्मा का ही रहता है, अन्य कोई नहीं|
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वह आनंदमय स्थिति सदा बनी रहे, अन्य कोई विकल्प नहीं रहे, इससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता| यही सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा कर्त्तव्य है|
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हे परम शिव, हे परात्पर गुरु, अब कोई अन्य प्रार्थना या स्तुति नहीं हो सकती| आपसे अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं तब कैसी स्तुति और कैसी प्रार्थना?
समस्त अस्तित्व ही तुम्ही हो| अपनी पूर्णता सभी के हृदयों में व्यक्त करो|
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ध्यान एक ऐसी स्थिति है जिसकी आनंदमय गहराई में साधक पूर्ण रूप से संतुष्ट रहता है| वहाँ असंतोष का एक कण मात्र भी नहीं रहता| कोई शिकायत नहीं, कोई निंदा व आलोचना नहीं, और कोई राग-द्वेष व अहंकार नहीं| उस स्थिति में निःसंग, असम्बद्ध और अप्रतिबद्ध रहना स्वाभाविक है क्योंकि एकमात्र अस्तित्व परमात्मा का ही रहता है, अन्य कोई नहीं|
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वह आनंदमय स्थिति सदा बनी रहे, अन्य कोई विकल्प नहीं रहे, इससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता| यही सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा कर्त्तव्य है|
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हे परम शिव, हे परात्पर गुरु, अब कोई अन्य प्रार्थना या स्तुति नहीं हो सकती| आपसे अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं तब कैसी स्तुति और कैसी प्रार्थना?
समस्त अस्तित्व ही तुम्ही हो| अपनी पूर्णता सभी के हृदयों में व्यक्त करो|
ॐ ॐ ॐ ||
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