Friday 12 May 2017

आदि शंकराचार्य और भक्तिवाद .......

आदि शंकराचार्य और भक्तिवाद .......
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आदि शंकराचार्य के बारे में सामान्य जन में यही धारणा है कि उन्होंने सिर्फ अद्वैतवाद या अद्वैत वेदांत को प्रतिपादित किया| पर यह सही नहीं है| अद्वैतवादी से अधिक वे एक भक्त थे और उन्होंने भक्ति को अधिक महत्व दिया|
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अद्वैतवाद के प्रतिपादक तो उनके परम गुरु ऋषि गौड़पाद थे जिन्होनें 'माण्डुक्यकारिका' ग्रन्थ की रचना की| आचार्य गौड़पाद ने माण्डुक्योपनिषद पर आधारित अपने ग्रन्थ मांडूक्यकारिका में जिन तत्वों का निरूपण किया उन्हीं का शंकराचार्य ने विस्तृत रूप दिया| अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदन करने हेतु शंकराचार्य ने सबसे पहिले माण्डुक्यकारिका पर भाष्य लिखा| आचार्य गौड़पाद श्रीविद्या के भी उपासक थे|
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शंकराचार्य के गुरु योगीन्द्र गोविन्दपाद थे जिन्होंने पिचासी श्लोकों के ग्रन्थ 'अद्वैतानुभूति' की रचना की| उनकी और भगवान पातंजलि की गुफाएँ पास पास ओंकारेश्वर के निकट नर्मदा तट पर घने वन में हैं| वहां आसपास और भी गुफाएँ हैं जहाँ अनेक सिद्ध संत तपस्यारत हैं| पूरा क्षेत्र तपोभूमि है|
राजाधिराज मान्धाता ने यहीं पर शिवजी के लिए इतनी घनघोर तपस्या की थी कि शिवजी को ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होना पड़ा जो ओंकारेश्वर कहलाता है|
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अपने 'विवेक चूडामणि' ग्रन्थ में शंकराचार्य कहते हैं ----
भक्ति प्रसिद्धा भव मोक्षनाय नात्र ततो साधनमस्ति किंचित् |
-- "साधना का आरम्भ भी भक्ति से होता है और उसका चरम उत्कर्ष भी भक्ति में ही होता है|"
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परम भक्ति और परम ज्ञान दोनों एक ही हैं|
भक्ति की उनकी बहुत सारी रचनाएं हैं जिनका विस्तार भय से यहाँ उल्लेख नहीं कर रहा|
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भगवान शंकराचार्य एक बार शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे कि मार्ग में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध विद्वान पंडित जी अपने शिष्यों को पाणिनि के व्याकरण के कठिन सूत्र समझा रहे थे| उन्हें देख शंकराचार्य की भक्ति जाग उठी और उन वैयाकरण जी को भक्ति का उपदेश देने के लिए 'गोबिंद स्तोत्र' की रचना की और सुनाना आरम्भ कर दिया| यह स्तोत्र 'द्वादश मांजरिक' स्तोत्र कहलाता है|
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अन्य भी बहुत सारी इतनी सुन्दर उनकी भक्ति की रचनाएँ हैं जो भाव विभोर कर देती हैं| कम से कम शब्दों का प्रयोग करते हुए मैं इस लेख का समापन करता हूँ|
ॐ तत्सत्||
(कृपा शंकर)
May 8, 2013
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पुनश्चः ......
कुतर्क करने वाले बहुत हैं| मेरा स्पष्ट मानना है कि भक्ति माता है, और ज्ञान व वैराग्य उसके पुत्र हैं| बिना भक्ति के ज्ञान व् वैराग्य नहीं हो सकते| आदि शंकराचार्य एक जन्मजात परम भक्त थे जो उनकी कृतियों से स्पष्ट है| अद्वैत वेदांत तो उन्हें गुरु परम्परा से मिला था| जिन को संदेह है वे उनके परम गुरु आचार्य गौड़पाद की "मांडुक्यकारिका", और उनके गुरु आचार्य गोबिन्दपाद की "अद्वैतानुभूति" का अध्ययन कर सकते हैं| अपने परम गुरु के सम्मान में उन्होंने सबसे पहिले मांडुक्यकारिका पर ही भाष्य लिखा| आचार्य गौडपाद ने जिन तत्वों का निरूपण किया उन्हीं का विस्तार ही अद्वैत वेदांत है|
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मैं कोई विद्वान नहीं हूँ अतः किसी भी तरह के वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहता| मैं एक अकिंचन साधक हूँ और दृष्टिकोण भी एक साधक का ही है| शंकराचार्य ने दत्तात्रेय की परम्परा में चले आ रहे संन्यास को ही एक नया रूप दिया| एक नई व्यवस्था दी| उनकी परम्परा के अनेक संतों से मेरा सत्संग हुआ है जिसे मैं जीवन की एक अति उच्च उपलब्धि मानता हूँ|
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उनके सबसे बड़े आलोचक थे विचारमल्ल व्यासराज जिन्होंने अपने ग्रन्थ "न्यायामृत" में शंकराचार्य जी के विचारों का खंडन किया है| माधवाचार्य के अनुयायियों ने शंकराचार्य के प्रति अभद्र शब्दों का प्रयोग किया है जिनसे मैं कभी सहमत नहीं हो सकता| मेरी दृष्टी में शंकराचार्य एक महानतम प्रतिभा के धनी थे जिन्होंने आज से तेरह सौ वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर विचरण किया|
May 8, 2013
Kripa Shankar
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(परसों मैंने एक लेख लिखा था --- आदि शंकराचार्य और भक्तिवाद ------ | निम्न लेख उसी का विस्तार है)
एक दिन की बात है आचार्य शंकर प्रातःकाल वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने गये|वहां एक युवा महिला अपने पति के अंतिम संस्कार के खर्च के लिए भिक्षा मांग रही थी| अपने पति की मृत देह को घाट पर इस प्रकार लेटा रखा था कि कोई भी स्नान के लिए नीचे नहीं उतर पा रहा था|
विवश शंकराचार्य ने उस महिला से अनुरोध किया कि हे माते, यदि आप कृपा करके इस शव को थोडा सा परे हटा दें तो मैं नीचे उतर कर स्नान कर सकूं| उस शोकाकुल महिला ने कोई उत्तर नहीं दिया| बार बार अनुनय विनय करने पर वह चिल्ला कर बोली कि इस मृतक को ही क्यों नहीं कह देते कि परे हट जाए|
आचार्य शंकर ने कहा कि हे माते, यह मृतक देह स्वतः कैसे हट सकती है? इसमें प्राण थोड़े ही हैं|
इस पर वह युवा स्त्री बोली कि हे संत महाराज, ये आप ही तो हैं जो सर्वत्र यह कहते फिरते हैं कि इस शक्तिहीन जग में केवल मात्र ब्रह्म का ही एकाधिकार चलता है| एक निष्काम, निर्गुण और त्रिगुणातीत ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं है, सब माया है|
एक सामान्य महिला से इतने गहन तत्व की बात सुनकर आचार्य जडवत हो गए|-क्षण भर पश्चात् देखा कि वह महिला और उसके पति का शव दोनों ही लुप्त हो गए हैं|
स्तब्ध आचार्य शंकर इस लीला का भेद जानने के लिए ध्यानस्थ हो गए| ध्यान में वे तुरंत समझ गए कि इस अलौकिक लीला की नायिका अन्य कोई नहीं स्वयं महामाया अन्नपूर्ण थीं| यह भी उन्हें समझ में आ गया कि इस विश्व का आधार यही आदिशक्ति महामाया अपने चेतन स्वरुप में है|
इस अनुभूति से आचार्य भावविभोर हो गए| उन्होंने वहीं महामाया अन्नपूर्णा स्तोत्र की रचना की| उसके एक पद का अनुवाद निम्न है ---
हे माँ यदि समस्त देवी देवताओं के स्वरूपों का अवलोकन किया जाए तो कुछ न कुछ कमी अवश्य दृष्टिगोचर होगी| यहाँ तक कि स्वयं ब्रह्मा भी प्रलयकाल की भयंकरता से विव्हल हो जाते हैं| किन्तु हे माँ चिन्मयी एक मात्र आप ही नित्य चैतन्य और नित्य पूर्ण हैं|
एक बार आचार्य शंकर एक ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने गए| भिक्षा में देने के लिए ब्राह्मण की पत्नी को घर में कुछ भी नहीं मिला| एक सूखा आंवला घर में मिला वह भी बहुत ढूँढने के पश्चात्| उस ब्राह्मण की दरिद्रता से आचार्य शंकर इतने भाव विव्हल हो गए कि करूणावश उन्होंने कनकधारा स्तोत्र की रचना की और जगन्माता से उस ब्राह्मण की दरिद्रता दूर करने की प्रार्थना की| उस ब्राह्मण का घर सोने के आंवलों से भर गया|
उन्होंने संस्कृत भाषा में इतने सुन्दर भक्ति पदों की रचनाएँ की है जो अति दिव्य और अनुपम हैं| उनमे भक्ति की पराकाष्ठा है| इतना ही नहीं परम ज्ञानी के रूप में उन्होंने ब्रह्म सूत्रों, उपनिषदों और गीता पर भाष्य लिखे हैं जो अनुपम हैं|
मेरी दृष्टी में वे एक महानतम और दिव्यतम प्रतिभा थे जिसने ईसा से पाँच शताब्दी पूर्व इस धरा पर विचरण किया| सनातन धर्म की रक्षा ऐसे ही महापुरुषों से हुई है| धन्य है यह भारतभूमि जिसने ऐसी महान आत्माओं को जन्म दिया| जय जननी ! जय भारत ! ॐ तत्सत्|
१० मई २०१३
(समाप्त)

2 comments:

  1. (यह लघु लेख मान्यवर शिवाद्वैत आगमिक अनुयायि जी के लिए है जिन्होंने इस विषय पर कुछ जिज्ञासा व्यक्त की थी)

    प्रिय मान्यवर, सप्रेम नमस्ते! ॐ नमः शिवाय|

    आपने मुझसे "अद्वैतानुभूती" के रचेता आचार्य गोविन्दपाद के बारे में कुछ लिखने को कहा था, जिनकी आध्यात्ममणि का स्पर्श पाकर आदि शंकराचार्य के जीवन में आध्यात्म की स्वर्णज्योति प्रकाशित हुई थी| मैं जो कुछ भी लिखने जा रहा हूँ उसका श्रेय संतों से प्राप्त सत्संग के आशीर्वाद का फल है| इसमें मेरी ओर से कुछ भी नहीं है|

    सिद्ध योगियों ने अपनी दिव्य दृष्टी से देखा था कि आचार्य गोबिन्दपाद ही अपने पूर्व जन्म में भगवान पतंजलि थे| ये अनंतदेव यानि शेषनाग के अवतार थे| इसलिए इनके महाभाष्य का दूसरा नाम फणीभाष्य भी है| कलियुगी प्राणियों पर करुणा कर के भगवान अनंतदेव शेषनाग ने इस कलिकाल में तीन बार पृथ्वी पर अवतार लिया| पहले अवतार थे भगवान पतंजलि, दूसरे आचार्य गोबिन्दपाद और तीसरे वैद्यराज चरक| इस बात की पुष्टि सौलहवीं शताब्दी में महायोगी विज्ञानभिक्षु ने भी की है|

    आचार्य शंकर बाल्यावस्था में गुरु की खोज में सुदूर केरल के एक गाँव से पैदल चलते चलते आचार्य गोबिन्दपाद के आकषर्ण से आकर्षित होकर ओंकारेश्वर के पास के वन की एक गुफा तक चले आये| आचार्य शंकर गुफा के द्वार पर खड़े होकर स्तुति करने लगे कि हे भगवन, आप ही अनंतदेव (शेषनाग) थे, अनन्तर आप ही इस धरा पर भगवान् पतंजलि के रूप में अवतरित हुए थे, और अब आप भगवान् गोबिन्दपाद के रूप में अवतरित हुए हैं| आप मुझ पर कृपा करें|
    आचार्य गोबिन्दपाद ने संतुष्ट होकर पूछा --- कौन हो तुम?
    इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य शंकर ने दस श्लोकों में परमात्मा अर्थात परम मैं का क्या स्वरुप है यह सुनाया| अद्वैतवाद की परम तात्विक व्याख्या बालक शंकर के मुख से सुनकर आचार्य गोबिन्दपाद ने शंकर को परमहंस संन्यास धर्म में दीक्षित किया|

    इस अद्वैतवाद के सिद्धांत की पहिचान आचार्य शंकर के परम गुरु ऋषि गौड़पाद ने अपने अमर ग्रन्थ "मान्डुक्यकारिका" से कराई थी| यह अद्वैतवाद का सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ है| अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदित करने हेतु आचार्य शंकर ने सवसे पहिले मांडूक्यकारिका पर ही भाष्य लिखा था| आचार्य गौड़पाद श्रीविद्या के उपासक थे|

    सार की बात जो मुझे ज्ञात थी वह मैंने आप को कम से कम शब्दों में बता दी| आगे आप स्वयं अपनी साधना से जानिये|
    धन्यवाद| ॐ शिव ! ॐ ||

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  2. May 10, 2013

    (परसों मैंने एक लेख लिखा था --- आदि शंकराचार्य और भक्तिवाद ------ | निम्न लेख उसी का विस्तार है)

    एक दिन की बात है आचार्य शंकर प्रातःकाल वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने गये|वहां एक युवा महिला अपने पति के अंतिम संस्कार के खर्च के लिए भिक्षा मांग रही थी| अपने पति की मृत देह को घाट पर इस प्रकार लेटा रखा था कि कोई भी स्नान के लिए नीचे नहीं उतर पा रहा था|
    विवश शंकराचार्य ने उस महिला से अनुरोध किया कि हे माते, यदि आप कृपा करके इस शव को थोडा सा परे हटा दें तो मैं नीचे उतर कर स्नान कर सकूं| उस शोकाकुल महिला ने कोई उत्तर नहीं दिया| बार बार अनुनय विनय करने पर वह चिल्ला कर बोली कि इस मृतक को ही क्यों नहीं कह देते कि परे हट जाए|

    आचार्य शंकर ने कहा कि हे माते, यह मृतक देह स्वतः कैसे हट सकती है? इसमें प्राण थोड़े ही हैं|
    इस पर वह युवा स्त्री बोली कि हे संत महाराज, ये आप ही तो हैं जो सर्वत्र यह कहते फिरते हैं कि इस शक्तिहीन जग में केवल मात्र ब्रह्म का ही एकाधिकार चलता है| एक निष्काम, निर्गुण और त्रिगुणातीत ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं है, सब माया है|

    एक सामान्य महिला से इतने गहन तत्व की बात सुनकर आचार्य जडवत हो गए|-क्षण भर पश्चात् देखा कि वह महिला और उसके पति का शव दोनों ही लुप्त हो गए हैं|

    स्तब्ध आचार्य शंकर इस लीला का भेद जानने के लिए ध्यानस्थ हो गए| ध्यान में वे तुरंत समझ गए कि इस अलौकिक लीला की नायिका अन्य कोई नहीं स्वयं महामाया अन्नपूर्ण थीं| यह भी उन्हें समझ में आ गया कि इस विश्व का आधार यही आदिशक्ति महामाया अपने चेतन स्वरुप में है|

    इस अनुभूति से आचार्य भावविभोर हो गए| उन्होंने वहीं महामाया अन्नपूर्णा स्तोत्र की रचना की| उसके एक पद का अनुवाद निम्न है ---
    हे माँ यदि समस्त देवी देवताओं के स्वरूपों का अवलोकन किया जाए तो कुछ न कुछ कमी अवश्य दृष्टिगोचर होगी| यहाँ तक कि स्वयं ब्रह्मा भी प्रलयकाल की भयंकरता से विव्हल हो जाते हैं| किन्तु हे माँ चिन्मयी एक मात्र आप ही नित्य चैतन्य और नित्य पूर्ण हैं|

    एक बार आचार्य शंकर एक ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने गए| भिक्षा में देने के लिए ब्राह्मण की पत्नी को घर में कुछ भी नहीं मिला| एक सूखा आंवला घर में मिला वह भी बहुत ढूँढने के पश्चात्| उस ब्राह्मण की दरिद्रता से आचार्य शंकर इतने भाव विव्हल हो गए कि करूणावश उन्होंने कनकधारा स्तोत्र की रचना की और जगन्माता से उस ब्राह्मण की दरिद्रता दूर करने की प्रार्थना की| उस ब्राह्मण का घर सोने के आंवलों से भर गया|

    उन्होंने संस्कृत भाषा में इतने सुन्दर भक्ति पदों की रचनाएँ की है जो अति दिव्य और अनुपम हैं| उनमे भक्ति की पराकाष्ठा है| इतना ही नहीं परम ज्ञानी के रूप में उन्होंने ब्रह्म सूत्रों, उपनिषदों और गीता पर भाष्य लिखे हैं जो अनुपम हैं|

    मेरी दृष्टी में वे एक महानतम और दिव्यतम प्रतिभा थे जिसने आज से तेरह सौ वर्ष पूर्व इस धरा पर विचरण किया| सनातन धर्म की रक्षा ऐसे ही महापुरुषों से हुई है| धन्य है यह भारतभूमि जिसने ऐसी महान आत्माओं को जन्म दिया| जय जननी ! जय भारत ! ॐ तत्सत्|
    १० मई २०१३

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