हे परमशिव, तुम अब और छिप नहीं सकते। तुम्हें यहीं, और इसी समय मुझे अपने साथ एक करना ही होगा। तुम्हारे से कुछ भी माँगना भी एक दुराग्रह है, लेकिन जायें तो जायें कहाँ? तुम्हारे सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं।
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यह अनंताकाश जिसमें सारी सृष्टि समाहित है, तुम्हारा ही संकल्प और तुम्हारी ही अभिव्यक्ति है। तुम स्वयं ही सर्वस्व हो। तुम्हारे सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं। मैं तुम्हारी ही अनंतता और तुम्हारा ही परमप्रेम हूँ। तुम्हारी पूर्णता मुझ में पूर्णतः व्यक्त हो। मेरा समर्पण स्वीकार करो। अन्य कुछ होने या पाने की किसी कामना का जन्म ही न हो। तुम ही कर्ता और भोक्ता हो। तुम स्वयं ही स्वयं से प्रसन्न रहो।
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तुम्हारे से विरह का भी एक आनंद था। तुम्हारी कृपा से तुम्हारे प्रति अभीप्सा (कभी न बुझने वाली प्यास), तड़प और प्रेम की निरंतरता बनी हुई थी, लेकिन अब उस से भी हृदय तृप्त हो गया है। तुमने मुझे अपनी माया के आवरण और विक्षेप से सदा बचाकर रखा, अपना विस्मरण एक क्षण के लिए भी नहीं होने दिया, और अपनी चेतना में रखा, इसके लिए आभारी हूँ। अब तो तुम्हारे से एकत्व की तड़प है। इस अभीप्सा को तृप्त करो। ॐ ॐ ॐ !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
११ नवंबर २०२१
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पुनश्च:---
"परमशिव ही सर्वस्व हैं।" हम सब परमशिव में ही रमण करें। इनका ही ध्यान करें, और अंत में इन्हीं में लय हो जायें।
हे प्रियतम परमशिव, मुझे आपसे प्यार हो गया है। आप सदा मुझे प्यारे लगें और मुझे अपने साथ एक करें। यह मेरे हृदय की तड़प और प्यास है। आप ने मेरे चारों ओर एक ऐसा घेरा डाल दिया है मैं उससे बाहर नहीं निकल सकता। मेरी चेतना में तो सर्वत्र मुझे शिव ही शिव दिखाई दे रहे हैं। मेरा अन्तःकरण आपको समर्पित है। सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे आप अपने परम-ज्योतिर्मय लोक में बिराजमान हैं। जहाँ आप हैं, वहीं मैं हूँ। मैं जितना इस देह में हूँ, उतना ही आपके साथ अनंतता और सर्वव्यापकता में हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
२६ नवंबर २०२१
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