परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है .....
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जीवन में अब परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई आकर्षण नहीं रहा है| मेरे लिए परमात्मा ही जीवन है, बाकि सब मृत्यु है| भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, आधि-व्याधि, सुख-दुःख सब परमात्मा को ही इस शरीर के माध्यम से हो रहे हैं| वही कर्ता है और वह ही भोक्ता है| मन को इधर उधर के दूसरे विषयों में लगाना मेरा व्यभिचार ही था जो अब और नहीं होना चाहिए| यह व्यभिचार अब और नहीं होगा| परमात्मा के अतिरिक्त अब अन्य किसी विषय पर भी नहीं लिखूंगा, सोचूंगा भी नहीं| यह मेरा दृढ़ संकल्प है| परमात्मा का चिंतन ही सदाचार है, बाकी अन्य सब व्यभिचार|
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मेरे एक मित्र हैं जो बहुत बड़े उद्योगपति भी हैं| अपने शानदार आधुनिक भवनों में भी अपने शयन कक्ष के आँगन को देशी गाय के गोबर से ही लीप कर रखते हैं| गाय के गोबर से लीपे हुए आँगन पर ही भोजन करते हैं और सोते भी ऐसे ही आँगन पर हैं| जीवन में एक-दो ऐसे विवाह भी देखे है जहाँ आधुनिकतम भवनों में भी गाय के गोबर से लीपे हुए स्थान पर ही पाणिग्रहण संस्कार करवाया गया|
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कुसंगियों के साथ रहने से भी विघ्न होता है| अब ऐसे लोगों से कोई संपर्क भी नहीं रखना है| जीवन में मैं बहुत अधिक भटका ही भटका हूँ, अब और नहीं भटकना है| मेरे आदर्श वे ही व्यक्ति हैं जो दिन-रात निरंतर परमात्मा का चिंतन करते हैं| भीड़भाड़ से अब विरक्ति हो गयी है, भीड़ वाले स्थानों पर अब भूल कर भी नहीं जाता| सत्संग के नाम पर एकत्र की गयी भीड़ भी अब विरक्ति ही उत्पन्न करती है, वहाँ अब भूल से भी नहीं जाता|
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हे प्रभु आप निरंतर मेरे विचारों में और मेरे आचरण में रहें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०६ फरवरी २०१८
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जिनमें "अव्यभिचारिणी" भक्ति का प्राकट्य हो गया है वे इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देवी/देवता हैं| यह पृथ्वी उनको पाकर सनाथ हो जाती है| जहाँ उनके पैर पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है| वह कुल और परिवार भी धन्य हो जाता है जहाँ उनका जन्म हुआ है|
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जब सर्वत्र सर्वदा सब में परमात्मा के ही दर्शन हों वह भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| भूख लगे तो अन्न में भी परमात्मा के दर्शन हों, प्यास लगे तो जल में भी परमात्मा के दर्शन हों, जब पूरी चेतना ही नाम-रूप से परे ब्रह्ममय हो जाए तब हुई भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| वहाँ कोई राग-द्वेष औरअभिमान नहीं रहता है| वहाँ सिर्फ और सिर्फ भगवान ही होते हैं|
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उपासना में जहाँ परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं है, वह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| भूख लगी तो भोजन प्रिय हो गया, प्यास लगी तो पानी प्रिय हो गया, जहाँ जिस चीज की आवश्यकता है वह प्रिय हो गयी, ध्यान करने बैठे तो परमात्मा प्रिय हो गया, यह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| जब तक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य विषयों में भी आकर्षण है, तब तक हुई भक्ति "व्यभिचारिणी" है| संसार में प्रायः जो भक्ति हम देखते हैं, वह "व्यभिचारिणी" ही है|
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जीवन में अब परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई आकर्षण नहीं रहा है| मेरे लिए परमात्मा ही जीवन है, बाकि सब मृत्यु है| भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, आधि-व्याधि, सुख-दुःख सब परमात्मा को ही इस शरीर के माध्यम से हो रहे हैं| वही कर्ता है और वह ही भोक्ता है| मन को इधर उधर के दूसरे विषयों में लगाना मेरा व्यभिचार ही था जो अब और नहीं होना चाहिए| यह व्यभिचार अब और नहीं होगा| परमात्मा के अतिरिक्त अब अन्य किसी विषय पर भी नहीं लिखूंगा, सोचूंगा भी नहीं| यह मेरा दृढ़ संकल्प है| परमात्मा का चिंतन ही सदाचार है, बाकी अन्य सब व्यभिचार|
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मेरे एक मित्र हैं जो बहुत बड़े उद्योगपति भी हैं| अपने शानदार आधुनिक भवनों में भी अपने शयन कक्ष के आँगन को देशी गाय के गोबर से ही लीप कर रखते हैं| गाय के गोबर से लीपे हुए आँगन पर ही भोजन करते हैं और सोते भी ऐसे ही आँगन पर हैं| जीवन में एक-दो ऐसे विवाह भी देखे है जहाँ आधुनिकतम भवनों में भी गाय के गोबर से लीपे हुए स्थान पर ही पाणिग्रहण संस्कार करवाया गया|
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कुसंगियों के साथ रहने से भी विघ्न होता है| अब ऐसे लोगों से कोई संपर्क भी नहीं रखना है| जीवन में मैं बहुत अधिक भटका ही भटका हूँ, अब और नहीं भटकना है| मेरे आदर्श वे ही व्यक्ति हैं जो दिन-रात निरंतर परमात्मा का चिंतन करते हैं| भीड़भाड़ से अब विरक्ति हो गयी है, भीड़ वाले स्थानों पर अब भूल कर भी नहीं जाता| सत्संग के नाम पर एकत्र की गयी भीड़ भी अब विरक्ति ही उत्पन्न करती है, वहाँ अब भूल से भी नहीं जाता|
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हे प्रभु आप निरंतर मेरे विचारों में और मेरे आचरण में रहें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०६ फरवरी २०१८
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जिनमें "अव्यभिचारिणी" भक्ति का प्राकट्य हो गया है वे इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देवी/देवता हैं| यह पृथ्वी उनको पाकर सनाथ हो जाती है| जहाँ उनके पैर पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है| वह कुल और परिवार भी धन्य हो जाता है जहाँ उनका जन्म हुआ है|
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जब सर्वत्र सर्वदा सब में परमात्मा के ही दर्शन हों वह भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| भूख लगे तो अन्न में भी परमात्मा के दर्शन हों, प्यास लगे तो जल में भी परमात्मा के दर्शन हों, जब पूरी चेतना ही नाम-रूप से परे ब्रह्ममय हो जाए तब हुई भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| वहाँ कोई राग-द्वेष औरअभिमान नहीं रहता है| वहाँ सिर्फ और सिर्फ भगवान ही होते हैं|
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उपासना में जहाँ परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं है, वह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| भूख लगी तो भोजन प्रिय हो गया, प्यास लगी तो पानी प्रिय हो गया, जहाँ जिस चीज की आवश्यकता है वह प्रिय हो गयी, ध्यान करने बैठे तो परमात्मा प्रिय हो गया, यह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| जब तक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य विषयों में भी आकर्षण है, तब तक हुई भक्ति "व्यभिचारिणी" है| संसार में प्रायः जो भक्ति हम देखते हैं, वह "व्यभिचारिणी" ही है|
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