यह लेख उनके लिए है जो परमात्मा की उपासना मातृरूप में करते हैं| स्वनामधन्य भगवान आचार्य शंकर (आदि शंकराचार्य) साक्षात शिव थे पर भगवती के उपासक थे| उनके ग्रंथ "सौंदर्य लहरी" के स्वाध्याय से लगता है वे श्रीविद्या के उपासक थे, यद्यपि सभी विद्यायें उन्हें सिद्ध थीं| इस ग्रंथ में एकसौ श्लोक हैं| उनका उपरोक्त ग्रंथ भगवती के उपासकों के लिए अति महत्वपूर्ण है| इस ग्रंथ के २७ वें श्लोक में वे माँ भगवती से निवेदन करते हैं .....
गति: प्रादक्षिण्यभ्रमणमशनाद्याहुतिविधी: ।
प्रणाम: संवेश: सुखमखिलमात्मार्पणदृशा
समर्यापर्यायस्तेव भवतु यन्मे विलसितम् ॥२७॥"
अर्थात- हे भगवती! आत्मार्पण दृष्टि से इस देह से जो कुछ भी बाह्यन्तर साधन किया हो, वह अपनी आराधना रूप मान लें और स्वीकार करें| मेरा बोलना आपके लिए मंत्र जप हो जाए, शिल्पादि बाह्य क्रिया मुद्रा प्रदर्शन हो जाए, देह की गति (चलना) आपकी प्रदक्षिणा हो जाए, देह का सोना (शयन) अष्टांग नमस्कार हो तथा दूसरे शारीरिक सुख या दुख भोग भी सर्वार्पण भाव में आप स्वीकार करें||
आत्मसमर्पण के भाव से परमात्मा के किसी भी रूप की उपासना की जाए तो परमात्मा स्वयं उपासक के जीवन का संचालन करते हैं| उपासक सुख, समृद्धि और सफलता तो पाता ही है, सत् चित आनंद भी उसके लिए सुलभ हो जाता है| वैसे शाक्त साधनाओं में श्रीविद्या की उपासना उच्चतम है| जिन्हें श्रीविद्या (राजराजेश्वरी भगवती ललिता त्रिपुर महासुंदरी) की दीक्षा मिल गई है, उनके लिए अन्य कोई दीक्षा नहीं है| यह उच्चतम दीक्षा है|, इसके बाद कोई अन्य दीक्षा नहीं है| इस दीक्षा में भी कई भेद हैं जिन्हें सिद्ध गुरु ही समझा सकते हैं|
ॐ तत्सत्! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय! ॐ ॐ ॐ !!
१२ सितंबर २०१९
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पुनश्च :---- सौन्दर्य लहरी ग्रंथ में श्रीविद्या के गोपनीय मंत्र का कूट रूप से उल्लेख और व्याख्या है| अतः सार्वजनिक मंच पर चर्चा का निषेध है|
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