Thursday, 11 September 2025

सनातन धर्म बहुत समृद्ध है। उसे किसी रिलीजन या मज़हब के सहारे, या किसी विदेशी देवता की आवश्यकता नहीं है।

 सनातन धर्म बहुत समृद्ध है। उसे किसी रिलीजन या मज़हब के सहारे, या किसी विदेशी देवता की आवश्यकता नहीं है। हमारी सबसे बड़ी समस्या है कि हम --

(१) भगवान का स्मरण हर समय कैसे करें? (२) समभाव में स्थिति कैसे हो?
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हमारे जीवन के अंतिम काल यानि मृत्यु के समय की भावना ही पुनर्जन्म का कारण होती है, इसलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमें हर समय भगवान का स्मरण करते हुए साथ-साथ शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी करने का आदेश देते हैं। भगवान कहते हैं ---
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- "इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
भगवान ने यह नहीं कहा कि दिन में दो-ढाई घंटे मेरा स्मरण करना और बाकी समय संसार का काम करना। भगवान ने कहा है कि जो व्यक्ति समभाव को प्राप्त है, वह हर समय मुझे उपलब्ध है --
"जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६:७॥"
अर्थात् -- "शीत-उष्ण, सुख-दु:ख तथा मान-अपमान में जो प्रशान्त रहता है, ऐसे जितात्मा पुरुष के लिये परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है, अर्थात्, आत्मरूप से विद्यमान है॥".
आचार्य शंकर अपने भाष्य में कहते हैं -- जिस ने मन-इन्द्रिय आदि के संघातरूप इस शरीर को अपने वश में कर लिया है, और जो प्रशान्त है, जिसका अन्तःकरण सदा प्रसन्न रहता है, उस को भली प्रकार से सर्वत्र परमात्मा प्राप्त है; अर्थात् वह साक्षात् आत्मभाव से विद्यमान है। वह सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख एवं मान और अपमान में यानी पूजा और तिरस्कार में भी (सम हो जाता है)॥
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उपरोक्त स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें तप करना होगा, यानि साधना करनी होगी। हमें शरीर, मन और बुद्धि के द्वन्द्वों से ऊपर उठ कर अद्वय होना होगा। भगवान कहते हैं --
"इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥५:१९॥"
अर्थात् -- जिनका अन्तःकरण समता में स्थित है, उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है; ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।
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परमात्मा से भिन्न स्वयं को समझना अज्ञान है। भगवान से भिन्न विषयों का चिंतन भी हमारे दुःखों का कारण है। गीता में भगवान कहते हैं --
"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२:६२॥"
"क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२:६३॥"
अर्थात् - विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है॥
क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है॥
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संसार की वस्तुओं में दोष नहीं है, दोष तो उनके चिंतन में है। मनुष्य जीवन भर अपनी इच्छाओं के पीछे भागता रहता है। इच्छाओं की पूर्ति का सारा श्रेय मनुष्य स्वयं लेता है, और जब इच्छा की पूर्ति नहीं होती तब दोष भगवान को देने लगता है। कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं।
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अपने दिन का आरंभ भगवान के ध्यान से करें। इस तरह से उठें जैसे जगन्माता की गोद में से सो कर उठ रहे हैं। प्रातः उठते ही लघुशंका आदि से निवृत होकर एक कंबल के आसन पर कमर सीधी रखते हुए पूर्व दिशा की ओर मुंह कर के बैठ जाएँ। आपको हठयोग के जितने भी प्राणायाम आते हैं, थोड़ी देर वे सब प्राणायाम करें। फिर अपनी गुरुपरंपरानुसार भगवान का गहनतम ध्यान करें।
रात्रि को सोने से पहिले भगवान का गहनतम ध्यान अपनी गुरुपरंपरानुसार कर के सोएँ। इस भाव से निश्चिंत होकर सोएँ जैसे जगन्माता की गोद में सो रहे हैं।
पूरे दिन भगवान को अपनी स्मृति में रखे। यह भाव रखें कि भगवान ही आपके माध्यम से सारा कार्य कर रहे हैं। जब भूल जाएँ तब याद आते ही भगवान का स्मरण फिर से करना आरंभ कर दें। गीता के निम्न ५ श्लोकों को एक बार समझ लें --
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६:२४॥"
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१२ सितंबर २०२५

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