Thursday, 11 September 2025

वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो --- .

वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो ---
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किसी अन्य को तो मैं कुछ कह नहीं सकता, इसलिए स्वयं को ही कह रहा हूँ। इस समय मेरे जीवन का यह संध्याकाल है, जिसका अवसान कभी भी हो सकता है। मेरी आयु इस समय ७९ वर्ष की है। मुझे इसी समय से जीवन-पर्यंत अब नित्य यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए। दिन में सांसारिक कार्यों और स्वाध्याय के लिए दो घंटे बहुत हैं। जितना आवश्यक है उतना आराम करना चाहिए। सब कुछ सांसारिक अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर अब निश्चिंत हो जाना चाहिए।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार हमारी भक्ति अनन्य और अव्यभिचारिणी हो --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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ध्यान एक स्वभाविक अवस्था है। जप-योग का अभ्यास करते करते, ध्यान अपने आप ही होने लगता है। ओंकार और राम दोनों का फल एक ही है। पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम-नाम का जप कर रही है। हमें उसी को निरंतर सुनना और उसी में विलीन हो जाना है। इस आयु में उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती है। पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है। जब परमात्मा का साथ मिल जाये तब किसी अन्य के साथ की आवश्यकता नहीं है। साथ करना ही है तो उन्हीं का करो जो हमारी साधना में सहायक हों। यही सत्संग है। साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा की चेतना में रखे।
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है। जड़ता का आभास माया का आवरण है। यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है। यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है। वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है, वे शिव हैं। सारी आकाश-गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से किसी न किसी की तो परिक्रमा कर ही रहे हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है। यदि सृष्टि का कहीं ना कहीं कोई तो केंद्र है, वह "विष्णु-नाभि" है। जिनसे यह सारी सृष्टि निर्मित हुई है और समस्त सृष्टि को जिन्होंने धारण कर रखा है वे स्वयं विष्णु हैं।
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥" (विष्णु सहस्त्रनाम)
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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इस सृष्टि की गति और प्रवाह, व उनसे निःसृत हो रही एक ध्वनी भी हम स्वयं हैं, उसी का ध्यान किया जाता है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होटी है। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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प्रणव मंत्र "ॐ" और तारक मंत्र "रां" दोनों का फल एक ही है। अपने विभिन्न लेखों में मैंने इस विषय पर खूब लिखा है। अब समय नहीं है। जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहें। कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों।
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन। ॐ स्वस्ति॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२५
.
अब स्वनिर्मित एकांत में ही रहने की प्रेरणा मिल रही है। केवल यह याद रखो कि भगवान हैं, इसी समय हैं, और यहीं पर हैं। वे सर्वत्र हैं, वे सर्वदा हैं। जहां भी हम हैं, वहीं परमात्मा हैं।
आप सब में मैं परमशिव/पुरुषोत्तम को नमन करता हूँ। आप के माध्यम से मुझे जो परमात्मा का परम प्रेम मिला है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ। आप परमात्मा के साकार रूप हो। इस समय तो मुझे परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी अनुभूत नहीं हो रहा है। उन्हीं की चेतना में हूँ। ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
बहुत ही अधिक आवश्यक होगा तभी फेसबुक पर आऊँगा, अन्यथा नहीं।
(संशोधित व पुनःप्रस्तुत) वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो ---
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किसी अन्य को तो मैं कुछ कह नहीं सकता, इसलिए स्वयं को ही कह रहा हूँ। इस समय मेरे जीवन का यह संध्याकाल है, जिसका अवसान कभी भी हो सकता है। मेरी आयु इस समय ७९ वर्ष की है। मुझे इसी समय से जीवन-पर्यंत अब नित्य यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए। दिन में सांसारिक कार्यों और स्वाध्याय के लिए दो घंटे बहुत हैं। जितना आवश्यक है उतना आराम करना चाहिए। सब कुछ सांसारिक अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर अब निश्चिंत हो जाना चाहिए।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार हमारी भक्ति अनन्य और अव्यभिचारिणी हो --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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ध्यान एक स्वभाविक अवस्था है। जप-योग का अभ्यास करते करते, ध्यान अपने आप ही होने लगता है। ओंकार और राम दोनों का फल एक ही है। पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम-नाम का जप कर रही है। हमें उसी को निरंतर सुनना और उसी में विलीन हो जाना है। इस आयु में उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती है। पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है। जब परमात्मा का साथ मिल जाये तब किसी अन्य के साथ की आवश्यकता नहीं है। साथ करना ही है तो उन्हीं का करो जो हमारी साधना में सहायक हों। यही सत्संग है। साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा की चेतना में रखे।
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है। जड़ता का आभास माया का आवरण है। यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है। यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है। वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है, वे शिव हैं। सारी आकाश-गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से किसी न किसी की तो परिक्रमा कर ही रहे हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है। यदि सृष्टि का कहीं ना कहीं कोई तो केंद्र है, वह "विष्णु-नाभि" है। जिनसे यह सारी सृष्टि निर्मित हुई है और समस्त सृष्टि को जिन्होंने धारण कर रखा है वे स्वयं विष्णु हैं।
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥" (विष्णु सहस्त्रनाम)
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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इस सृष्टि की गति और प्रवाह, व उनसे निःसृत हो रही एक ध्वनी भी हम स्वयं हैं, उसी का ध्यान किया जाता है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होटी है। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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प्रणव मंत्र "ॐ" और तारक मंत्र "रां" दोनों का फल एक ही है। अपने विभिन्न लेखों में मैंने इस विषय पर खूब लिखा है। अब समय नहीं है। जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहें। कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों।
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन। ॐ स्वस्ति॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२५
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अब स्वनिर्मित एकांत में ही रहने की प्रेरणा मिल रही है। केवल यह याद रखो कि भगवान हैं, इसी समय हैं, और यहीं पर हैं। वे सर्वत्र हैं, वे सर्वदा हैं। जहां भी हम हैं, वहीं परमात्मा हैं।
आप सब में मैं परमशिव/पुरुषोत्तम को नमन करता हूँ। आप के माध्यम से मुझे जो परमात्मा का परम प्रेम मिला है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ। आप परमात्मा के साकार रूप हो। इस समय तो मुझे परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी अनुभूत नहीं हो रहा है। उन्हीं की चेतना में हूँ। ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
बहुत ही अधिक आवश्यक होगा तभी फेसबुक पर आऊँगा, अन्यथा नहीं।
(संशोधित व पुनःप्रस्तुत) वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो ---
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किसी अन्य को तो मैं कुछ कह नहीं सकता, इसलिए स्वयं को ही कह रहा हूँ। इस समय मेरे जीवन का यह संध्याकाल है, जिसका अवसान कभी भी हो सकता है। मेरी आयु इस समय ७९ वर्ष की है। मुझे इसी समय से जीवन-पर्यंत अब नित्य यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए। दिन में सांसारिक कार्यों और स्वाध्याय के लिए दो घंटे बहुत हैं। जितना आवश्यक है उतना आराम करना चाहिए। सब कुछ सांसारिक अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर अब निश्चिंत हो जाना चाहिए।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार हमारी भक्ति अनन्य और अव्यभिचारिणी हो --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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ध्यान एक स्वभाविक अवस्था है। जप-योग का अभ्यास करते करते, ध्यान अपने आप ही होने लगता है। ओंकार और राम दोनों का फल एक ही है। पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम-नाम का जप कर रही है। हमें उसी को निरंतर सुनना और उसी में विलीन हो जाना है। इस आयु में उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती है। पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है। जब परमात्मा का साथ मिल जाये तब किसी अन्य के साथ की आवश्यकता नहीं है। साथ करना ही है तो उन्हीं का करो जो हमारी साधना में सहायक हों। यही सत्संग है। साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा की चेतना में रखे।
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है। जड़ता का आभास माया का आवरण है। यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है। यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है। वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है, वे शिव हैं। सारी आकाश-गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से किसी न किसी की तो परिक्रमा कर ही रहे हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है। यदि सृष्टि का कहीं ना कहीं कोई तो केंद्र है, वह "विष्णु-नाभि" है। जिनसे यह सारी सृष्टि निर्मित हुई है और समस्त सृष्टि को जिन्होंने धारण कर रखा है वे स्वयं विष्णु हैं।
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥" (विष्णु सहस्त्रनाम)
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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इस सृष्टि की गति और प्रवाह, व उनसे निःसृत हो रही एक ध्वनी भी हम स्वयं हैं, उसी का ध्यान किया जाता है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होटी है। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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प्रणव मंत्र "ॐ" और तारक मंत्र "रां" दोनों का फल एक ही है। अपने विभिन्न लेखों में मैंने इस विषय पर खूब लिखा है। अब समय नहीं है। जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहें। कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों।
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन। ॐ स्वस्ति॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२५
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अब स्वनिर्मित एकांत में ही रहने की प्रेरणा मिल रही है। केवल यह याद रखो कि भगवान हैं, इसी समय हैं, और यहीं पर हैं। वे सर्वत्र हैं, वे सर्वदा हैं। जहां भी हम हैं, वहीं परमात्मा हैं।
आप सब में मैं परमशिव/पुरुषोत्तम को नमन करता हूँ। आप के माध्यम से मुझे जो परमात्मा का परम प्रेम मिला है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ। आप परमात्मा के साकार रूप हो। इस समय तो मुझे परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी अनुभूत नहीं हो रहा है। उन्हीं की चेतना में हूँ। ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
बहुत ही अधिक आवश्यक होगा तभी फेसबुक पर आऊँगा, अन्यथा नहीं।
(संशोधित व पुनःप्रस्तुत) वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो ---
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किसी अन्य को तो मैं कुछ कह नहीं सकता, इसलिए स्वयं को ही कह रहा हूँ। इस समय मेरे जीवन का यह संध्याकाल है, जिसका अवसान कभी भी हो सकता है। मेरी आयु इस समय ७९ वर्ष की है। मुझे इसी समय से जीवन-पर्यंत अब नित्य यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए। दिन में सांसारिक कार्यों और स्वाध्याय के लिए दो घंटे बहुत हैं। जितना आवश्यक है उतना आराम करना चाहिए। सब कुछ सांसारिक अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर अब निश्चिंत हो जाना चाहिए।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार हमारी भक्ति अनन्य और अव्यभिचारिणी हो --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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ध्यान एक स्वभाविक अवस्था है। जप-योग का अभ्यास करते करते, ध्यान अपने आप ही होने लगता है। ओंकार और राम दोनों का फल एक ही है। पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम-नाम का जप कर रही है। हमें उसी को निरंतर सुनना और उसी में विलीन हो जाना है। इस आयु में उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती है। पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है। जब परमात्मा का साथ मिल जाये तब किसी अन्य के साथ की आवश्यकता नहीं है। साथ करना ही है तो उन्हीं का करो जो हमारी साधना में सहायक हों। यही सत्संग है। साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा की चेतना में रखे।
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है। जड़ता का आभास माया का आवरण है। यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है। यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है। वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है, वे शिव हैं। सारी आकाश-गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से किसी न किसी की तो परिक्रमा कर ही रहे हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है। यदि सृष्टि का कहीं ना कहीं कोई तो केंद्र है, वह "विष्णु-नाभि" है। जिनसे यह सारी सृष्टि निर्मित हुई है और समस्त सृष्टि को जिन्होंने धारण कर रखा है वे स्वयं विष्णु हैं।
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥" (विष्णु सहस्त्रनाम)
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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इस सृष्टि की गति और प्रवाह, व उनसे निःसृत हो रही एक ध्वनी भी हम स्वयं हैं, उसी का ध्यान किया जाता है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होटी है। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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प्रणव मंत्र "ॐ" और तारक मंत्र "रां" दोनों का फल एक ही है। अपने विभिन्न लेखों में मैंने इस विषय पर खूब लिखा है। अब समय नहीं है। जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहें। कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों।
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन। ॐ स्वस्ति॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२५
.
अब स्वनिर्मित एकांत में ही रहने की प्रेरणा मिल रही है। केवल यह याद रखो कि भगवान हैं, इसी समय हैं, और यहीं पर हैं। वे सर्वत्र हैं, वे सर्वदा हैं। जहां भी हम हैं, वहीं परमात्मा हैं।
आप सब में मैं परमशिव/पुरुषोत्तम को नमन करता हूँ। आप के माध्यम से मुझे जो परमात्मा का परम प्रेम मिला है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ। आप परमात्मा के साकार रूप हो। इस समय तो मुझे परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी अनुभूत नहीं हो रहा है। उन्हीं की चेतना में हूँ। ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
बहुत ही अधिक आवश्यक होगा तभी फेसबुक पर आऊँगा, अन्यथा नहीं।
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