Thursday 26 December 2019

कूटस्थ चैतन्य में निरंतर परमप्रेममय होकर रहो .....

कूटस्थ चैतन्य में रहो, कूटस्थ चैतन्य में रहो, और कूटस्थ चैतन्य में निरंतर परमप्रेममय होकर रहो .....
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यह मेरी सीमित और अल्प बुद्धि के अनुसार सबसे बड़ी साधना है| इस से बड़ी कोई अन्य साधना नहीं है| इसका अर्थ बहुत अच्छी तरह से समझाया जा चुका है| हम अपना पूर्ण प्रेम भगवान को देंगे तो हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) भी स्वतः ही भगवान का हो जाएगा| भगवान हमारे से हमारा रुपया-पैसा नहीं मांग रहे हैं, सिर्फ हमारा प्रेम ही मांग रहे हैं| प्रेम के अतिरिक्त हमारे पास है ही क्या? सब कुछ तो उन्हीं का दिया हुआ है| प्रकृति में कुछ भी निःशुल्क नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है| प्रेम के बदले में भगवान स्वयं को ही दे रहे हैं| इससे अधिक और है ही क्या?
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
अर्थात (तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो मुझे नमस्कार करो इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे||
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
अर्थात तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो| (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ, (क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो||
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गीता में आध्यात्म के सबसे बड़े, बड़े से बड़े रहस्य छिपे हुए हैं जो बुद्धि की समझ से परे हैं| वे भगवान की परम कृपा से ही समझ में आते हैं| अपनी कृपा वे उन्हीं पर करते हैं, जो उन्हें प्रेम करते हैं| गीता भारत का प्राण है| भगवान वासुदेव की परम कृपा सब पर हो|
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव |
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव ||
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०१९

1 comment:

  1. बड़ी बड़ी ज्ञान की बातों में अब कोई रस नहीं आता.
    इन तिलों में अब तेल नहीं रहा है.
    प्रत्यक्ष साक्षात्कार से कम कुछ भी अभीप्सित नहीं है.
    उन के बिना अब और नहीं रह सकते.
    ॐ ॐ ॐ

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