अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की हार्दिक शुभ कामनाएँ .....
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हमारे पुण्य अक्षय हों. हमारा राष्ट्र परम वैभव को प्राप्त हो. हमारे राष्ट्र को सदा सही नेतृत्व मिले और कायरता का कोई अवशेष हम में न रहे. हम सब के जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो. ॐ ॐ ॐ ||
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आज की जैसी परिस्थितियाँ हैं और वातावरण है उसमें हमें परशुराम जैसे अनेक व्यक्तित्वों की आवश्यकता है जो अधर्म का नाश कर धर्म की पुनर्स्थापना कर सके| हमें परशुराम की प्रतीक्षा है|
पत्थर सी हों मांसपेशियाँ, लौहदंड भुजबल अभय;
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
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श्री रामधारी सिंह दिनकर जी की "परशुराम की प्रतीक्षा" नामक कविता का एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ जो उन्होंने भारत पर चीनी आक्रमण और भारत की पराजय के उपरांत भारतीयों में पुनः उत्साह और जोश भरने के लिए लिखी थी|
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"जब परशुराम पर मातृ-हत्या का पाप चढ़ा, वे उससे मुक्ति पाने को सभी तीर्थों में फिरे, किन्तु, कहीं भी परशु पर से उनकी वज्रमूठ नहीं खुली यानी उनके मन में से पाप का भान नहीं दूर हुआ। तब पिता ने उनसे कहा कि कैलास के समीप जो ब्रह्मकुण्ड है, उसमें स्नान करने से यह पाप छूट जायगा। निदान, परशुराम हिमालय पर चढ़कर कैलास पहुँचे और ब्रह्मकुण्ड में उन्होंने स्नान किया। ब्रह्मकुण्ड में डुबकी लगाते ही परशु उनके हाश से छूट कर गिर गया अर्थात् उनका मन पाप-मुक्त हो गया।
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तीर्थ को इतना जाग्रत देखकर परशुराम के मन में यह भाव जगा कि इस कुण्ड के पवित्र जल को पृथ्वी पर उतार देना चाहिए। अतएव, उन्होंने पर्वत काट कर कुण्ड से एक धारा निकाली, जिसका नाम, ब्रह्मकुण्ड से निकलने के कारण, ब्रह्मपुत्र हुआ। ब्रह्मकुण्ड का एक नाम लोहित-कुण्ड भी मिलता है। एक जगह यह भी लिखा है कि ब्रह्मपुत्र की धारा परशुराम ने ब्रह्मकुण्ड से ही निकाली थी, किन्तु, आगे चलकर वह धारा लोहित-कुण्ड नामक एक अन्य कुण्ड में समा गयी। परशुराम ने उस कुण्ड से भी धारा को आगे निकाला, इसलिए, ब्रह्मपुत्र का एक नाम लोहित भी मिलता है। स्वयं कालिदास ने ब्रह्मपुत्र को लोहित नाम से ही अभिहित किया है। और जहाँ ब्रह्मपुत्र नदी पर्वत से पृथ्वी पर अवतीर्ण होती है, वहाँ आज भी परशुराम-कुण्ड मौजूद है, जो हिन्दुओं को परम पवित्र तीर्थ माना जाता है।
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लोहित में गिर कर जब परशुराम का कुठार-पाप-मुक्त हो गया, तब उस कुठार से उन्होंने एक सौ वर्ष तक लड़ाइयाँ लड़ीं और समन्तपंचक में पाँच शोणित-ह्रद बना कर उन्होंने पितरों का तर्पण किया। जब उनका प्रतिशोध शान्त हो गया, उन्होंने कोंकण के पास पहुँच कर अपना कुठार समुद्र में फेंक दिया और वे नवनिर्माण में प्रवृत्त हो गये। भारत का वह भाग, जो अब कोंकण और केरल कहलाता है, भगवान् परशुराम का ही बसाया हुआ है।
लोहित भारतवर्ष का बड़ा ही पवित्र भाग है। पुरा काल में वहाँ परशुराम का पाप-मोचन हुआ था। आज एक बार फिर लोहित में ही भारतवर्ष का पाप छूटा है। इसीलिए, भविष्य मुझे आशा से पूर्ण दिखाई देता है।"
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परशुराम की प्रतीक्षा (शक्ति और कर्तव्य)
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जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
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चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
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यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
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है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
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नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
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ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
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जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
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तलवार पुण्य की सखी‚ धर्मपालक है‚
लालच पर अंकुश कठिन‚ लोभ–सालक है।
असि छोड़‚ भीरु बन जहां धर्म सोता है‚
पातक प्रचंडतम वहीं प्रगट होता है।
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तलवारें सोतीं जहां बंद म्यानों में‚
किस्मतें वहां सड़ती हैं तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियें–नथें चढ़ती हैं‚
सोने की ईंटें‚ मगर‚ नहीं कढ़ती हैं।
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पूछो कुबेर से कब सुवर्ण वे देंगे?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे?
तूफान उठेगा‚ प्रलय बाण छूटेगा‚
है जहां स्वर्ण‚ बम वहीं‚ स्यात्‚ फूटेगा।
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जो करें‚ किंतु‚ कंचन यह नहीं बचेगा‚
शायद‚ सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें‚
कह दो सब से‚ अपना दायित्व संभालें।
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कह दो प्रपंचकारी‚ कपटी‚ जाली से‚
आलसी‚ अकर्मठ‚ काहिल‚ हड़ताली से‚
सी लें जबान‚ चुपचाप काम पर जायें‚
हम यहां रक्त‚ वे घर पर स्वेद बहायें।
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हम दे दें उस को विजय‚ हमें तुम बल दो‚
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहां यदि घर में‚
है कौन हमें जीते जो यहां समर में?
∼ रामधारी सिंह ‘दिनकर
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हमारे पुण्य अक्षय हों. हमारा राष्ट्र परम वैभव को प्राप्त हो. हमारे राष्ट्र को सदा सही नेतृत्व मिले और कायरता का कोई अवशेष हम में न रहे. हम सब के जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो. ॐ ॐ ॐ ||
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आज की जैसी परिस्थितियाँ हैं और वातावरण है उसमें हमें परशुराम जैसे अनेक व्यक्तित्वों की आवश्यकता है जो अधर्म का नाश कर धर्म की पुनर्स्थापना कर सके| हमें परशुराम की प्रतीक्षा है|
पत्थर सी हों मांसपेशियाँ, लौहदंड भुजबल अभय;
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
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श्री रामधारी सिंह दिनकर जी की "परशुराम की प्रतीक्षा" नामक कविता का एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ जो उन्होंने भारत पर चीनी आक्रमण और भारत की पराजय के उपरांत भारतीयों में पुनः उत्साह और जोश भरने के लिए लिखी थी|
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"जब परशुराम पर मातृ-हत्या का पाप चढ़ा, वे उससे मुक्ति पाने को सभी तीर्थों में फिरे, किन्तु, कहीं भी परशु पर से उनकी वज्रमूठ नहीं खुली यानी उनके मन में से पाप का भान नहीं दूर हुआ। तब पिता ने उनसे कहा कि कैलास के समीप जो ब्रह्मकुण्ड है, उसमें स्नान करने से यह पाप छूट जायगा। निदान, परशुराम हिमालय पर चढ़कर कैलास पहुँचे और ब्रह्मकुण्ड में उन्होंने स्नान किया। ब्रह्मकुण्ड में डुबकी लगाते ही परशु उनके हाश से छूट कर गिर गया अर्थात् उनका मन पाप-मुक्त हो गया।
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तीर्थ को इतना जाग्रत देखकर परशुराम के मन में यह भाव जगा कि इस कुण्ड के पवित्र जल को पृथ्वी पर उतार देना चाहिए। अतएव, उन्होंने पर्वत काट कर कुण्ड से एक धारा निकाली, जिसका नाम, ब्रह्मकुण्ड से निकलने के कारण, ब्रह्मपुत्र हुआ। ब्रह्मकुण्ड का एक नाम लोहित-कुण्ड भी मिलता है। एक जगह यह भी लिखा है कि ब्रह्मपुत्र की धारा परशुराम ने ब्रह्मकुण्ड से ही निकाली थी, किन्तु, आगे चलकर वह धारा लोहित-कुण्ड नामक एक अन्य कुण्ड में समा गयी। परशुराम ने उस कुण्ड से भी धारा को आगे निकाला, इसलिए, ब्रह्मपुत्र का एक नाम लोहित भी मिलता है। स्वयं कालिदास ने ब्रह्मपुत्र को लोहित नाम से ही अभिहित किया है। और जहाँ ब्रह्मपुत्र नदी पर्वत से पृथ्वी पर अवतीर्ण होती है, वहाँ आज भी परशुराम-कुण्ड मौजूद है, जो हिन्दुओं को परम पवित्र तीर्थ माना जाता है।
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लोहित में गिर कर जब परशुराम का कुठार-पाप-मुक्त हो गया, तब उस कुठार से उन्होंने एक सौ वर्ष तक लड़ाइयाँ लड़ीं और समन्तपंचक में पाँच शोणित-ह्रद बना कर उन्होंने पितरों का तर्पण किया। जब उनका प्रतिशोध शान्त हो गया, उन्होंने कोंकण के पास पहुँच कर अपना कुठार समुद्र में फेंक दिया और वे नवनिर्माण में प्रवृत्त हो गये। भारत का वह भाग, जो अब कोंकण और केरल कहलाता है, भगवान् परशुराम का ही बसाया हुआ है।
लोहित भारतवर्ष का बड़ा ही पवित्र भाग है। पुरा काल में वहाँ परशुराम का पाप-मोचन हुआ था। आज एक बार फिर लोहित में ही भारतवर्ष का पाप छूटा है। इसीलिए, भविष्य मुझे आशा से पूर्ण दिखाई देता है।"
>
परशुराम की प्रतीक्षा (शक्ति और कर्तव्य)
.
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
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चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
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यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
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है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
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नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
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ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
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जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
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तलवार पुण्य की सखी‚ धर्मपालक है‚
लालच पर अंकुश कठिन‚ लोभ–सालक है।
असि छोड़‚ भीरु बन जहां धर्म सोता है‚
पातक प्रचंडतम वहीं प्रगट होता है।
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तलवारें सोतीं जहां बंद म्यानों में‚
किस्मतें वहां सड़ती हैं तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियें–नथें चढ़ती हैं‚
सोने की ईंटें‚ मगर‚ नहीं कढ़ती हैं।
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पूछो कुबेर से कब सुवर्ण वे देंगे?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे?
तूफान उठेगा‚ प्रलय बाण छूटेगा‚
है जहां स्वर्ण‚ बम वहीं‚ स्यात्‚ फूटेगा।
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जो करें‚ किंतु‚ कंचन यह नहीं बचेगा‚
शायद‚ सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें‚
कह दो सब से‚ अपना दायित्व संभालें।
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कह दो प्रपंचकारी‚ कपटी‚ जाली से‚
आलसी‚ अकर्मठ‚ काहिल‚ हड़ताली से‚
सी लें जबान‚ चुपचाप काम पर जायें‚
हम यहां रक्त‚ वे घर पर स्वेद बहायें।
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हम दे दें उस को विजय‚ हमें तुम बल दो‚
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहां यदि घर में‚
है कौन हमें जीते जो यहां समर में?
∼ रामधारी सिंह ‘दिनकर
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