परमात्मा की माया क्या परमात्मा की एक मुस्कान मात्र है?
हम अपने परिजनों के असह्य कष्टों के साक्षी होने को बाध्य क्यों हैं?
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प्रेम से चिंतन करने पर विचार तो आता है कि परमात्मा की माया उनकी एक मुस्कान मात्र है, पर हम अपने प्रियजनों के कष्टों के साक्षी होने को बाध्य क्यों हैं? इसका भी चिंतन होता है| हम दिन रात एक करके हाडतोड़ परिश्रम करते हैं ताकि हम पर आश्रित परिजन सुखी रहें, पर उन पर आये हुए कष्टों के साक्षी होने को भी बाध्य होते हैं| इसका क्या कारण है? इसका कुछ कुछ आभास होता है|
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संभवतः प्रकृति यह बोध कराना चाहती है कि हम यह देह ही नहीं हैं तब ये परिजन हमारे कैसे हुए? सब के अपने अपने प्रारब्ध हैं, सबका अपना अपना भाग्य है| सभी अपने कर्मों का फल भोगने को जन्म लेते हैं| पूर्व जन्मों के शत्रु और मित्र अगले जन्मों में या तो एक ही परिवार या समाज में जन्म लेते हैं या फिर पुनश्चः आपस में एक दूसरे से मिलते हैं, और पुराना हिसाब किताब चुकाते हैं| यह बात सभी पर लागू होती है| मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा है| मैं भी अपने घर-परिवार के सदस्यों के असह्य कष्टों का साक्षी होने को बाध्य हूँ| पर मैं क्या शिकायत करूँ? ऐसा तो सभी के साथ हो रहा है| किसी का कष्ट कम है, किसी का अधिक, कष्ट तो सब को है|
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जो लोग आध्यात्म मार्ग के पथिक हैं उनको तो ये कष्ट अधिक ही होते हैं|
साधना के मार्ग में भी "विक्षेप" व "आवरण" नाम की राक्षसियाँ, और "राग", "द्वेष" व "अहंकार" नाम के महा असुर, भयावह कष्ट देते हैं| इनसे बचने का प्रयास करते हैं तो ये अपने अनेक भाई-बंधुओं सहित आकर बार बार हमें चारों खाने चित गिरा ही देते हैं| ये कभी नहीं हटेंगे, स्थायी रूप से यहीं रहेंगे| इनके साथ संघर्ष करते है तो ये हमें अपनी बिरादरी में ही मिला लेने का प्रयास करते हैं| परमात्मा को शरणागति द्वारा समर्पित होने का निरंतर प्रयास और प्रभु के प्रति प्रेम, प्रेम, प्रेम और परम प्रेम ही हमारी रक्षा कर सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है |
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||
हम अपने परिजनों के असह्य कष्टों के साक्षी होने को बाध्य क्यों हैं?
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प्रेम से चिंतन करने पर विचार तो आता है कि परमात्मा की माया उनकी एक मुस्कान मात्र है, पर हम अपने प्रियजनों के कष्टों के साक्षी होने को बाध्य क्यों हैं? इसका भी चिंतन होता है| हम दिन रात एक करके हाडतोड़ परिश्रम करते हैं ताकि हम पर आश्रित परिजन सुखी रहें, पर उन पर आये हुए कष्टों के साक्षी होने को भी बाध्य होते हैं| इसका क्या कारण है? इसका कुछ कुछ आभास होता है|
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संभवतः प्रकृति यह बोध कराना चाहती है कि हम यह देह ही नहीं हैं तब ये परिजन हमारे कैसे हुए? सब के अपने अपने प्रारब्ध हैं, सबका अपना अपना भाग्य है| सभी अपने कर्मों का फल भोगने को जन्म लेते हैं| पूर्व जन्मों के शत्रु और मित्र अगले जन्मों में या तो एक ही परिवार या समाज में जन्म लेते हैं या फिर पुनश्चः आपस में एक दूसरे से मिलते हैं, और पुराना हिसाब किताब चुकाते हैं| यह बात सभी पर लागू होती है| मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा है| मैं भी अपने घर-परिवार के सदस्यों के असह्य कष्टों का साक्षी होने को बाध्य हूँ| पर मैं क्या शिकायत करूँ? ऐसा तो सभी के साथ हो रहा है| किसी का कष्ट कम है, किसी का अधिक, कष्ट तो सब को है|
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जो लोग आध्यात्म मार्ग के पथिक हैं उनको तो ये कष्ट अधिक ही होते हैं|
साधना के मार्ग में भी "विक्षेप" व "आवरण" नाम की राक्षसियाँ, और "राग", "द्वेष" व "अहंकार" नाम के महा असुर, भयावह कष्ट देते हैं| इनसे बचने का प्रयास करते हैं तो ये अपने अनेक भाई-बंधुओं सहित आकर बार बार हमें चारों खाने चित गिरा ही देते हैं| ये कभी नहीं हटेंगे, स्थायी रूप से यहीं रहेंगे| इनके साथ संघर्ष करते है तो ये हमें अपनी बिरादरी में ही मिला लेने का प्रयास करते हैं| परमात्मा को शरणागति द्वारा समर्पित होने का निरंतर प्रयास और प्रभु के प्रति प्रेम, प्रेम, प्रेम और परम प्रेम ही हमारी रक्षा कर सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है |
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