नर्क के दरवाजे के तीन बड़े आकर्षक, मनोहर और विशाल रूप तो ऐसे हैं, जिनका ज्ञान होते हुए भी हम अनायास ही उस में प्रवेश कर के नर्कगामी हो जाते हैं। इस द्वार की बात मैं नहीं, भगवान स्वयं कह रहे है --
"त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥१६:२१॥"
अर्थात् -- काम, क्रोध और लोभ ये आत्मनाश के त्रिविध द्वार हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥
This door of hell, which is the destroyer of the soul, is of three kinds-passion, anger and also greed. Therefore one should forsake these three.
.
संकल्प से ही इनको नहीं टाल सकते। गीता में इनसे बचने के उपाय भी बताये गए हैं, जिस के लिए गीता का स्वाध्याय और साधना करनी पड़ेगी। फिर कभी इस विषय पर चर्चा करेंगे। ॐ तत्सत् !!
६ मार्च २०२२
.
पुनश्च :---
काम, क्रोध और लोभ से हमारी रक्षा, परमात्मा की मातृरूप में उपासना से होती है। जगन्माता यानि भगवती की उपासना में हमारा उद्देश्य सिर्फ उनके प्रेम की प्राप्ति होनी चाहिए। अन्य किसी भी तरह की कोई आकांक्षा नहीं हो। उनका प्रेम ही हमारी रक्षा करता है। जगन्माता के किसी भी रूप की हम उपासना करें, तो अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें दें, कुछ भी अपने पास बचाकर न रखें।
.
हमारा आहार, विचार, संगति, और जीवन पद्धति - हमारे लक्ष्य के अनुरूप/अनुकूल हो, तभी सफलता मिलती है। गीता के १६वें अध्याय "देव असुर संपदा विभाग योग" का स्वाध्याय इस हेतु अति सहायक होगा। गीता का स्वाध्याय तो नित्य करें। क्रमशः सिर्फ पाँच श्लोकों का अर्थ सहित समझते हुए पाठ नित्य करें। इतना पर्याप्त है।
.
श्रद्धा हो तो भगवती श्रीविद्या की उपासना भी बड़ी सहायक होती है। कोई भी साधना हो, किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से दीक्षा लेकर ही करनी चाहिए। और कुछ भी अभी लिखने योग्य नहीं है। एक ही बात सदा याद रखें कि हमारे जीवन का एक ही लक्ष्य और उद्देश्य है, और वह है सिर्फ भगवत्-प्राप्ति। अन्य कोई उद्देश्य नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ मार्च २०२२
No comments:
Post a Comment