दुर्गति किस की होती है? और बार बार कष्टमय असुर योनियों में कौन जाते हैं? --
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गीता मे भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा है --
"तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥१६:१९॥"
अर्थात् - ऐसे उन द्वेष करने वाले, क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बारम्बार (अजस्रम्) आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ॥
"Those cruel haters, worst among men in the world, I hurl those evil-doers into the wombs of demons only."
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यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता ईश्वर के रूप में यह वाक्य कह रहे हैं -- "मैं उन्हें आसुरी योनियों में गिराता हूँ"। मनुष्य अपनी स्वेच्छा से शुभाशुभ कर्म करता है और उसे कर्म के नियमानुसार ईश्वर फल प्रदान करता है। भगवान किसी के साथ पक्षपात नहीं करते। आसुरी भाव के मनुष्य अपनी निम्नस्तरीय वासनाओं से प्रेरित होकर जब दुष्कर्म करते हैं, तब उन्हें उनके स्वभाव के अनुकूल ही बारम्बार असुर योनियों में जन्म मिलता है। परमात्मा आत्मरूप हैं अतः परमात्मा से द्वेष करने का नतीजा अपने पर ही आता है। असुर परमात्मा से द्वेष करता है तो वह द्वेष वापस उसी पर आता है। असुर द्वेषी हैं, सन्मार्ग के विरोधी हैं, साधु पुरुषों से द्वेष करते हैं, अतः क्रूर होते हैं। भगवान् ने उन को "नराधमान्" यानि नरों में अधम बताया है।
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अधम वे होते हैं - जो अपने कष्ट को तो कष्ट समझते हैं, पर दूसरे के कष्ट को कष्ट ही नहीं समझते। अपने दुःख को दुःख समझना, और दूसरे के दुःख को नाटक समझना, यह नरों की अधमता है। ऐसे लोग अगले जन्म में क्रूर पशु योनी में जाते हैं।
भगवान आगे कहते हैं --
"असुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥१६:२०॥"
अर्थात् - हे कौन्तेय ! वे मूढ़ पुरुष जन्मजन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं और (इस प्रकार) मुझे प्राप्त न होकर अधम गति को प्राप्त होते है॥
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सार की बात यह है कि दूसरों के दुःख को दुःख न समझने वाले क्रूर व्यक्ति अगले जन्मों में क्रूर पशु योनी में जन्म लेते हैं, फिर घोर नर्क में जाते हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ मार्च २०२२
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