आत्मा का धर्म है -- परमात्मा की अभीप्सा, पूर्ण प्रेम और पूर्ण समर्पण।
हम ये नश्वर देह, अन्तःकरण, इंद्रियाँ, और उनकी तन्मात्राओं से परे शाश्वत आत्मा हैं। अपने स्वधर्म का पालन निरंतर करते रहें।
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यह संसार परमात्मा की रचना है। विश्व में जो कुछ भी हो रहा है, उससे विचलित न हों; और कूटस्थ-चैतन्य / ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर रहने कि साधना करते रहें। परमात्मा भी हमारे प्रेम के भूखे/प्यासे हैं, और हमसे मिलने को तरस रहे हैं। हम कब तक उनसे प्रतीक्षा करवायेंगे?
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कृपा शंकर
७ जनवरी २०२३
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