सारे हिन्दू धर्मग्रंथों के आदेशों का भाव सार रूप में यदि एक पंक्ति में व्यक्त किया जाए तो वह यह होगा ..... "जीवन में सर्वप्रथम भगवान को प्राप्त करो फिर उनकी चेतना में अन्य सारे कर्म करो|" गीता में भगवान श्रीकृष्ण संक्षेप में स्पष्ट बताते हैं कि भगवान की प्राप्ति का अधिकारी कौन है.....
"इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः| मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते||१३:१९||
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यहाँ सब वेदोंका और गीता का अर्थ एकत्र कर के कहा गया है कि इस ज्ञान का अधिकारी कौन है| भगवान के ज्ञान का अधिकारी सिर्फ भगवान का भक्त है जिसने भगवान में अपने सारे भावों का अर्पण कर दिया है| वह जिस किसी भी वस्तु को देखता, सुनता और स्पर्श करता है, उन सब में उसे भगवान वासुदेव ही अनुभूत होते हैं| उसी ने भगवान को प्राप्त कर लिया है| वह व्यक्ति ही इस पृथ्वी पर चलता-फिरता देवता है| यह पृथ्वी भी ऐसे व्यक्ति को पाकर धन्य हो जाती है| जहाँ भी उसके चरण पड़ते हैं वह स्थान पवित्र हो जाता है| वह स्थान धन्य है जहाँ ऐसी पवित्र आत्मा रहती हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ फरवरी २०१९
"इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः| मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते||१३:१९||
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यहाँ सब वेदोंका और गीता का अर्थ एकत्र कर के कहा गया है कि इस ज्ञान का अधिकारी कौन है| भगवान के ज्ञान का अधिकारी सिर्फ भगवान का भक्त है जिसने भगवान में अपने सारे भावों का अर्पण कर दिया है| वह जिस किसी भी वस्तु को देखता, सुनता और स्पर्श करता है, उन सब में उसे भगवान वासुदेव ही अनुभूत होते हैं| उसी ने भगवान को प्राप्त कर लिया है| वह व्यक्ति ही इस पृथ्वी पर चलता-फिरता देवता है| यह पृथ्वी भी ऐसे व्यक्ति को पाकर धन्य हो जाती है| जहाँ भी उसके चरण पड़ते हैं वह स्थान पवित्र हो जाता है| वह स्थान धन्य है जहाँ ऐसी पवित्र आत्मा रहती हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ फरवरी २०१९
हमने कभी पूर्ण हृदय से भगवान को चाहा ही नहीं| यदि पूर्ण हृदय से चाहते तो भगवान अब तक अवश्य मिल जाते|
ReplyDeleteभगवान ने गीता में स्पष्ट कहा है कि कौन किस विधि से उन्हें प्रात कर सकता है|
वह विधि है ..... अनन्य योग और अव्यभिचारिणी भक्ति| काश ! उसकी पात्रता हमारे में भी होती|
"मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी | विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
"इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः| मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते||१३:१९||"
जिन के हृदय में इन्द्रीय सुखों की कामना भरी पडी है वे आध्यात्म के क्षेत्र में न आयें, उन्हें लाभ की बजाय हानि ही होगी| साधना में विक्षेप ही सब से बड़ी बाधा है| विक्षेप उन्हीं को होता है जिनके विचार वासनात्मक होते हैं| जिनके हृदय में वासनात्मक विचार भरे पड़े हैं उन्हें किसी भी तरह की ध्यान साधना नहीं करनी चाहिए अन्यथा लाभ की बजाय हानि ही होगी| वासनात्मक विचारों से भरा ध्यान साधक निश्चित रूप से आसुरी शक्तियों का उपकरण बन जाता है| इसीलिए पतंजलि ने यम-नियमों पर इतना जोर दिया है| गुरु गोरखनाथ तो अपने शिष्यों के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य की पात्रता अनिवार्य रखते थे| स्वामी विवेकानंद ने भी ध्यान साधना से पूर्व ब्रह्मचर्य को अनिवार्य बताया है| जिन लोगों का मन वासनाओं से भरा पडा है वे बाहर ही रहें, उन्हें भीतर आने की आवश्यकता नहीं है|
ReplyDeleteॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ फरवरी २०१९