सारी सृष्टि ही ब्रह्ममय है, सदा शिवभाव में स्थित रहो ---
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सारा सृष्टि ही ब्रह्ममय है। शिवभाव में स्थित होकर प्रयासपूर्वक सदा अपना दृष्टिपथ भ्रूमध्य में रखें, और वहाँ से अनुभूत होने वाले ज्योतिर्मय ब्रह्म का निरंतर ध्यान करते हुए उन के सूर्य-मण्डल में पुरुषोत्तम के दर्शन करें।
हमारा सुषुम्ना-पथ सदा ज्योतिर्मय रहे। मूलाधारचक्र से सहस्त्रारचक्र के मध्य प्राणायाम करते-करते देवभाव प्राप्त होता है, और सब प्रकार की सिद्धियाँ मिलती है। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति में निरंतर रहने की साधना करें, और क्रिया की परावस्था में रहें। भौतिक देह की चेतना शनैः शनैः कम होने लगेगी। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान को प्रतिक्रियारहित सहन करना एक महान तपस्या है।
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महात्माओं का कथन है कि करोड़ों तीर्थों में स्नान करने का जो फल है, कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम के निरंतर दर्शन से वही फल प्राप्त होता है। कूटस्थ चक्र ही श्रीविद्या का पादपद्म, और सभी देवताओं का आश्रय है। उसमें स्थिति आनंद और मोक्ष है। भगवती साक्षात रूप से वहीं बिराजमान हैं।
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पहले मुझे बहुत अधिक शिकायत थी -- स्वयं से, भगवान से, और परिस्थितियों से। अब किससे किसकी शिकायत करूँ? कोई अन्य है ही नहीं।
परमात्मा से परमप्रेम, उन के प्रकाश का निरंतर विस्तार, और ब्रह्मभाव में स्थिति -- ये ही क्रमशः भक्ति, कर्म व ज्ञानयोग हैं।
मन को बलात् बार बार सच्चिदानंद ब्रह्म में लगाये रखना हमारा परम कर्तव्य है। मन और इन्द्रियों की एकाग्रता -- परम तप है, और समदृष्टि ही ब्रह्म्दृष्टि है।
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कूटस्थ गुरु-रूप-ब्रह्म को पूर्ण समर्पण व नमन! सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हीं की अभिव्यक्ति है, कहीं भी "मैं" और "मेरा" नहीं।
भगवती से प्रार्थना है कि इस राष्ट्र भारत से असत्य का अंधकार पूरी तरह दूर हो, और यहाँ धर्म की पुनर्स्थापना हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ फरवरी २०२२
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