Sunday, 27 February 2022

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ---

आज प्रातः गीता के अठारहवें अध्याय के सत्रहवें श्लोक पर स्वाध्याय और चर्चा कर रहा था, पर उस से अभी तक मन नहीं भरा है, इसलिए दुबारा उस की चर्चा कर रहा हूँ| वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण का यह एक बहुत बड़ा संदेश है ---

"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||१८:१७||
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
इस विषय पर स्वनामधन्य अनेक महान आचार्यों ने बड़ी विद्वतापूर्ण टीकायें की हैं| इसका स्वाध्याय और मनन कर सभी को इसे अपने निज आचरण में लाना चाहिए| इस पर मैंने विचार किया तो पाया कि मुझ अकिंचन के वश की यह बात नहीं है| पर जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कुछ कह रहे हैं तब इसे गंभीरता से लेना ही पड़ेगा|
मुझे कुछ भी आता-जाता नहीं है, इस लिए हे प्रभु, मैं स्वयं को ही पूर्ण रूपेण आपको समर्पित करता हूँ| सिर्फ आप ही मेरे हैं, और मैं आपका हूँ| बुद्धि तो मुझमें है ही नहीं| मेरी यह अति अल्प और सीमित बुद्धि आपको ही बापस करता हूँ| मुझे यह भी नहीं चाहिए| साथ-साथ यह मन, चित्त और अहंकार भी आपको ही बापस कर रहा हूँ| मुझे आपके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ फरवरी २०२०

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