गुरु रूप ब्रह्म उतारो पार भव सागर के .......
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हम प्रायः नित्य निरंतर गुरु महाराज से करुण प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु, इस भवसागर के पार उतारो| प्रार्थना करते करते अकस्मात् हम पाते हैं कि भवसागर तो कभी का पार हो गया, सिर्फ उसकी कुछ महक यानि गंध बची है जो भी शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी|
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भवसागर एक मानसिक सृष्टि है, मन से बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं है| जब मनुष्य का मन सभी बाह्य मायावी आकर्षणों और आकांक्षाओं से मुक्त होकर स्थायी रूप से परमात्मा में रम जाता है, उसी क्षण भवसागर भी पार हो जाता है| विक्षेप और आवरण (माया की दो शक्तियाँ) तो आते रहते हैं पर प्रभु प्रेम (भक्ति) की शक्ति के आगे वे विवश हैं|
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हमारी नौका (हमारी देह, मन, प्राण, बुद्धि आदि) जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं, का कर्णधार (Helmsman) जब हम अपने सद्गुरु रूपी ब्रह्म को बना देते हैं (यानि समर्पित कर देते हैं), तब वायु की अनुकूलता (परमात्मा की कृपा) तुरंत हो जाती है| जितना गहरा हमारा समर्पण होता है, उतनी ही गति नौका की बढ़ जाती है, और सारे छिद्र भी करूणावश परमात्मा द्वारा ही भर दिए जाते हैं|
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कभी कभी कुछ काल के लिए हम अटक जाते हैं, पर अति सूक्ष्म रूप से गुरु महाराज बलात् धक्का मार कर फिर आगे कर देते हैं| धन्य हैं ऐसे सद्गगुरु जो अपने शिष्यों को कभी भटकने या अटकने नहीं देते, और निरंतर चलायमान रखते हैं|
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अपेक्षित सारा ज्ञान और उपदेश भी वे किसी ना किसी माध्यम से दे ही देते हैं|
अतः भवसागर पार करने की चिंता छोड़ दो और .... ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः यानि ब्रह्मज्ञ होकर केवल ब्रह्म में ही स्थित होने का निरंतर प्रयास करो| यही साधना है और यही उपासना है| अपनी नौका के कर्ण (Helm) के साथ साथ अपना हाथ भी उनके ही हाथों में सौंप दो और उन्हें ही संचालन (Steer) करने दो| वे इस नौका के स्वामी ही नहीं, बल्कि नौका भी वे स्वयं ही है| इस विमान के चालक ही नहीं, विमान भी वे स्वयं ही हैं|
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(क्षमा कीजिये, इनसे और अधिक सरल व स्पष्ट शब्दों में अपने भावों को व्यक्त करने में मैं असमर्थ हूँ)
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>>> जिन्हें मार्गदर्शन चाहिए, वे कुटिलता त्याग कर, सत्यनिष्ठ बन कर पात्रता अर्जित करें, और किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य गुरु की शरण लें| मैं किसी का गुरु नहीं हूँ और न ही गुरु पद के लिए अधिकृत हूँ| एक अच्छा शिष्य ही बनने का प्रयास कर रहा हूँ| <<<
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ॐ शिव ॐ शिव ! भगवान परमशिव सबका कल्याण करें|
ॐ ॐ ॐ !!
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हम प्रायः नित्य निरंतर गुरु महाराज से करुण प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु, इस भवसागर के पार उतारो| प्रार्थना करते करते अकस्मात् हम पाते हैं कि भवसागर तो कभी का पार हो गया, सिर्फ उसकी कुछ महक यानि गंध बची है जो भी शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी|
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भवसागर एक मानसिक सृष्टि है, मन से बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं है| जब मनुष्य का मन सभी बाह्य मायावी आकर्षणों और आकांक्षाओं से मुक्त होकर स्थायी रूप से परमात्मा में रम जाता है, उसी क्षण भवसागर भी पार हो जाता है| विक्षेप और आवरण (माया की दो शक्तियाँ) तो आते रहते हैं पर प्रभु प्रेम (भक्ति) की शक्ति के आगे वे विवश हैं|
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हमारी नौका (हमारी देह, मन, प्राण, बुद्धि आदि) जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं, का कर्णधार (Helmsman) जब हम अपने सद्गुरु रूपी ब्रह्म को बना देते हैं (यानि समर्पित कर देते हैं), तब वायु की अनुकूलता (परमात्मा की कृपा) तुरंत हो जाती है| जितना गहरा हमारा समर्पण होता है, उतनी ही गति नौका की बढ़ जाती है, और सारे छिद्र भी करूणावश परमात्मा द्वारा ही भर दिए जाते हैं|
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कभी कभी कुछ काल के लिए हम अटक जाते हैं, पर अति सूक्ष्म रूप से गुरु महाराज बलात् धक्का मार कर फिर आगे कर देते हैं| धन्य हैं ऐसे सद्गगुरु जो अपने शिष्यों को कभी भटकने या अटकने नहीं देते, और निरंतर चलायमान रखते हैं|
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अपेक्षित सारा ज्ञान और उपदेश भी वे किसी ना किसी माध्यम से दे ही देते हैं|
अतः भवसागर पार करने की चिंता छोड़ दो और .... ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः यानि ब्रह्मज्ञ होकर केवल ब्रह्म में ही स्थित होने का निरंतर प्रयास करो| यही साधना है और यही उपासना है| अपनी नौका के कर्ण (Helm) के साथ साथ अपना हाथ भी उनके ही हाथों में सौंप दो और उन्हें ही संचालन (Steer) करने दो| वे इस नौका के स्वामी ही नहीं, बल्कि नौका भी वे स्वयं ही है| इस विमान के चालक ही नहीं, विमान भी वे स्वयं ही हैं|
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(क्षमा कीजिये, इनसे और अधिक सरल व स्पष्ट शब्दों में अपने भावों को व्यक्त करने में मैं असमर्थ हूँ)
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>>> जिन्हें मार्गदर्शन चाहिए, वे कुटिलता त्याग कर, सत्यनिष्ठ बन कर पात्रता अर्जित करें, और किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य गुरु की शरण लें| मैं किसी का गुरु नहीं हूँ और न ही गुरु पद के लिए अधिकृत हूँ| एक अच्छा शिष्य ही बनने का प्रयास कर रहा हूँ| <<<
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ॐ शिव ॐ शिव ! भगवान परमशिव सबका कल्याण करें|
ॐ ॐ ॐ !!
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