हमारे विचार सही होंगे तभी हमारा आचरण भी सही होगा ---
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आज मैं चार अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करना चाहता हूँ। यह मेरा स्वयं के साथ स्वयं का एक सत्संग है। अन्य कोई पढ़े या न पढ़े, लेकिन मुझे तो इससे बहुत अधिक लाभ हो रहा है। मैं न तो आत्म-मुग्ध हूँ, न अहंकारी और न ही फेंकू हूँ, जैसा की कुछ लोग मुझ पर आरोप लगाते हैं। कौन मेरे बारे में क्या सोचता है, यह उसकी समस्या है; मेरी नहीं। मुझे स्पष्टीकरण देने की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरा ध्यान मेरे विचारों की पवित्रता, और परमात्मा को समर्पण पर है। जो चार विचार मेरे समक्ष हैं, उन पर चर्चा कर रहा हूँ।
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(१) विषयों का चिंतन महा पाप है --
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विषयों में लिप्त होने से अधिक पाप, विषयों के चिंतन से होता है। विषयों के भोग से इतना पाप नहीं लगता, जितना विषयों के चिंतन से लगता है। विषयों का चिंतन ही मुख्य पाप है, क्योंकि हम मन से जो कुछ ही सोचते हैं वह ही हमारा कर्म है, जिसका फल मिले बिना नहीं रहता।
गीता में भगवान कहते हैं --
"कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३:६॥"
अर्थात् -- जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी कहा जाता है॥
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जो कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है, वह मिथ्याचारी है। शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन का स्वभाव है एक विचार को बारंबार दोहराना। इस प्रकार एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ संस्कार (वासना) बन जाता है। निरन्तर विषयचिन्तन से, वैषयिक संस्कार मन में गहराई से उत्कीर्ण हो जाते हैं, और उनसे प्रेरित मनुष्य विवश होकर उसी प्रकार के कर्म करता है।
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जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों के चिंतन में रहता है, वह मिथ्याचारी और महापाप का भागी है। भगवान तो यहाँ तक कहते हैं कि मन को परमात्मा में लगाकर अन्य किसी भी विषय का चिंतन न करें --
"सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६:२४॥
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
अर्थात् -- संकल्प से उत्पन्न समस्त कामनाओं को नि:शेष रूप से परित्याग कर मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार वश में करके।
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे।
यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥
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(२) समष्टि के कल्याण की भावना रखें --
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हम समष्टि के कल्याण की भावना रखेंगे तो समष्टि भी हमारा कल्याण करेगी। वे देवता जो हमारा कल्याण कर सकते हैं, उन्हें भी शक्ति हमारे कर्मों से ही मिलती है। हम देवताओं को जो अर्पित करते हैं, उसे ही देवता बापस हमें कई गुणा अधिक कर के लौटाते हैं।
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अपने कर्तव्य-कर्म में हम नित्य प्रतिष्ठित रहें। भगवान को अर्पित करना हमारा कर्तव्य-कर्म है जिसे किए बिना यदि हम कुछ भी ग्रहण करते हैं तो हम चोरी करते हैं। बिना भगवान को अर्पित किये कुछ भी पाना -- पाप का भक्षण है।
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(३) आत्माराम का कोई कर्तव्य नहीं है --
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आत्माराम शब्द का प्रयोग देवर्षि नारद ने "भक्ति-सूत्रों" में उस व्यक्ति के लिए किया है जो निरंतर आत्मा में रमण करता है। आत्माराम का कोई कर्तव्य नहीं है। वह कृतकृत्य और जीवन-मुक्त है। उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है। वह परमात्मा का ही एक रूप है और इस धरा पर विचरण करता हुआ एक देवता है। यह धरा उसे पाकर धन्य और पवित्र हो जाती है। देवता भी उसे देखकर आनंदित होकर नृत्य करने लगते हैं। उसकी सात पीढ़ियाँ तुरंत मुक्त हो जाती हैं। उसे सामान्य नियमों में नहीं बांधा जा सकता। वह कुल धन्य हो जाता है जिसमें उसने जन्म लिया है।
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(४) कर्ताभाव से मुक्त होकर ही हम परमात्मा का अनुग्रह पा सकते हैं --
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अनासक्त कर्तव्य-कर्म हमें परमात्मा से जोड़ देते हैं। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, "मैं कर्ता हूँ" ऐसा मान लेता है। सम्पूर्ण कर्म और उनके फल भगवान को अर्पित कर दें। कर्मों और कर्मफलों से मुक्त होने की प्रक्रिया आध्यात्मिक उपासना है। हम निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें, यही हमारा स्वधर्म है। हम अपने स्वधर्म का पालन करें।
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उपसंहार --- उपरोक्त चार विषयों पर सत्संग पाने की मेरी घनिष्ठ इच्छा थी। अब मैं स्वयं के साथ सत्संग कर के आने वाले लंबे समय तक के लिए तृप्त और संतुष्ट हूँ। सभी का कल्याण हो। हम वही हो जाते हैं, जैसा हम सदा सोचते हैं| निरंतर परमात्मा का चिंतन करने से परमात्मा के सारे गुण हमारे में आ जाते हैं| अतः ऐसे ही लोगों का संग करें जो सदा परमात्मा के बारे में सोचते हैं| उन लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दें जो परमात्मा से विमुख हैं| उनसे मिलना तो क्या उनकी और आँख उठाकर देखना भी बड़ा दुःखदायी होता है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२५
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