Tuesday, 17 December 2024

अनिर्वचनीय परमप्रेम ---

एक बात तो निश्चित है कि हम अपना कल्याण स्वयं नहीं कर सकते। यह हमारे सामर्थ्य के बाहर की बात है। पता नहीं कितने जन्मों से यह प्रयास चल रहा है। अब थक-हार कर अंततः भगवान के समक्ष समर्पण करना ही होगा। फिर यह समस्या भगवान की हो जाएगी कि हमारा कल्याण कैसे हो। गीता में भगवान कहते हैं --

"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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यह एक ऐसा विषय है जिस पर लिखने के पश्चात अब मुझे इस जीवन में अन्य कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। जो मुझे लिखना चाहिए था, वह सब कुछ लिखा जा चुका है। अब कुछ भी शेष नहीं बचा है। दो दिनों से इस अनिर्वचनीय परमप्रेम की अनुभूतियाँ हो रही हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण के एक वचन को पढ़/समझ कर मन प्रसन्नता से झूम उठा, और नृत्य करने लगा। अपरोक्षानुभूति -- शब्दातीत है, उसे लिखा नहीं जा सकता।
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भक्तिसूत्रों में देवर्षि नारद कहते हैं --
"अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्॥५१॥" (प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है।)
"मूकास्वादनवत्॥५२॥" (गूँगे के स्वाद लेने की तरह।)
"प्रकाशते व्कापि पात्रे॥५३॥" (किसी बिरले योग्य पात्र [प्रेमी भक्त में] ऐसा प्रेम प्रकट भी होता है।)
"गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्॥५४॥"
(यह प्रेम गुणरहित है, कामनारहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, विच्छेदरहित है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और अनुभव रूप है।)
"तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव श्रृणोति तदेव भाषयति तदेव चिंतयति॥५५॥"
(उस प्रेम को पाकर प्रेमी उस प्रेम को ही देखता है, प्रेम को ही सुनता है, उस प्रेम का ही वर्णन करता है और उस प्रेम का ही चिंतन करता है।)
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गीता में इस विषय पर भगवान कहते हैं --
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
अर्थात् - उस (परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझ में प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है॥
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एक बात तो निश्चित है कि हम अपना कल्याण स्वयं नहीं कर सकते। यह हमारे सामर्थ्य के बाहर की बात है। पता नहीं कितने जन्मों से यह प्रयास चल रहा है। अब थक-हार कर अंततः भगवान के समक्ष समर्पण करना ही होगा। फिर यह समस्या भगवान की हो जाएगी कि हमारा कल्याण कैसे हो। गीता में भगवान कहते हैं --

"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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यह एक ऐसा विषय है जिस पर लिखने के पश्चात अब मुझे इस जीवन में अन्य कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। जो मुझे लिखना चाहिए था, वह सब कुछ लिखा जा चुका है। अब कुछ भी शेष नहीं बचा है। दो दिनों से इस अनिर्वचनीय परमप्रेम की अनुभूतियाँ हो रही हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण के एक वचन को पढ़/समझ कर मन प्रसन्नता से झूम उठा, और नृत्य करने लगा। अपरोक्षानुभूति -- शब्दातीत है, उसे लिखा नहीं जा सकता।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१७ दिसंबर २०२३

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