जो समस्या इस समय इस सम्पूर्ण विश्व की है, मेरी समस्या भी वही है। इसका समाधान भी एक ही है --
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"जिन्हें अत्यल्प मात्रा में ही सही, परमात्मा और धर्म की समझ है, वे अपने निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करें।"
यही हमारा स्वधर्म है, जिसके पालन के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है। परमात्मा में मेरी दृढ़ आस्था है, किसी से मेरी कोई अपेक्षा नहीं है। निज जीवन की सारी कमियाँ, दुर्बलताएं, और सारे गुण-दोष, यहाँ तक की स्वयं का अस्तित्व व पृथकता का बोध भी बापस परमात्मा को समर्पित है।
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इस समय इस युग की सबसे बड़ी समस्या है -- "धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण"।
धर्म एक ही है, और वह है -- "सनातन धर्म"। अन्य सब रिलीजन और मज़हब हैं। जो व्यष्टि में है वही समष्टि में है। सर्वप्रथम स्वयं के जीवन में धर्म को पुनःप्रतिष्ठित करेंगे तो वह भारत और सम्पूर्ण विश्व में भी पुनःप्रतिष्ठित होगा। हमारा स्वयं का जीवन धर्ममय हो। हम शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का स्वधर्म है -- परमात्मा को उपलब्ध होना। हम परमात्मा को उपलब्ध होकर ही बाहरी विश्व में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं, अन्यथा नहीं।
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यदि हम दूसरों से कुछ भी अपेक्षा रखते हैं तो निराशा ही निराशा और धोखा व विश्वासघात ही मिलेगा, और कुछ भी नहीं। अतः जो कुछ भी करना है वह अकेले स्वयं ही करें। परमात्मा समान रूप से सर्वव्यापी है। वे हमारे साथ हर समय व हर स्थान पर हैं। वे स्वयं ही यह विश्व बने हुए हैं। स्वयं निमित्त मात्र होकर उन्हें स्वयं के माध्यम से निरंतर प्रवाहित होने दें। अन्य कोई उपाय नहीं है।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ दिसंबर २०२४
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