Tuesday, 17 December 2024

परमात्मा की उपासना कौन कर सकता है? ---

 परमात्मा की उपासना कौन कर सकता है? ---

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"भगवान" और "परमात्मा" में बहुत अधिक अंतर है। "भगवान" शब्द को तो विष्णु-पुराण में परिभाषित किया गया है --
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णाम् भग इतीरणा।।" –विष्णुपुराण ६ । ५ । ७४
अर्थात् -- "सम्पूर्ण ऐश्वर्य", "धर्म", "यश", "श्री", "ज्ञान", तथा "वैराग्य" -- ये छः सम्यक् पूर्ण होने पर "भग" कहे जाते हैं और इन छः की जिसमें पूर्णता है, वह भगवान है।
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भगवान तो अनेक महापुरुष बने हैं, लेकिन वे परमात्मा के अंश ही थे। "परमात्मा" तो अपरिभाष्य और अवर्णनीय हैं। वे सब शब्दों से परे हैं। एक आचार्य ने तो यहाँ तक लिखा है कि परमात्मा को परिभाषित करने का प्रयास कनक-कसौटी पर हीरे को कसने का प्रयास है। परमात्मा को हम अनुभूत कर सकते हैं, उनके प्रति समर्पित हो सकते हैं, लेकिन उन्हें किसी भी सीमा में नहीं बांध सकते।
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क्या जल की एक बूंद, महासागर को जान सकती है, या पा सकती है? जल की एक बूंद -- महासागर को समर्पित होकर उसके साथ एक हो सकती है, लेकिन उसे जान या पा नहीं सकती। यह समर्पण ही सबसे बड़ी प्राप्ति यानि उपलब्धि है।
ऐसे ही जीवात्मा-- परमात्मा को समर्पित हो सकती है, उन्हें जान या पा नहीं सकती। परमात्मा को समर्पित होना ही भगवत्-प्राप्ति और आत्म-साक्षात्कार है। यहाँ समर्पण से अभिप्राय हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का पूर्ण समर्पण है। जब हमारा अंतःकरण -- परमात्मा को पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है, तब उसी क्षण हम परमात्मा को उपलब्ध हो जाते हैं, यानि परमात्मा को पा लेते हैं। यही "आत्म-साक्षात्कार" और "भगवत्-प्राप्ति" है।
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कठोपनिषद व मुंडकोपनिषद के अनुसार प्रवचनों यानि उपदेशों को सुनकर या पढ़कर परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। परमात्मा प्रसन्न होकर स्वयं ही अपने रहस्य किसी के समक्ष अनावृत कर सकता है, उसे कोई बाध्य नहीं कर सकता। कठोपनिषद व मुण्डकोपनिषद् कहते हैं --
"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌॥"
(अयम् आत्मा प्रवचनेन न लभ्यः। न मेधया न बहुधा श्रुतेन। एषः यं एव वॄणुते तेन लभ्यः। तस्य एषः आत्मा त्वां तनूं विवृणुते॥)
अर्थात् -- "यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं हैं, न ही मेधा-शक्ति और न शास्त्रों को बहुत अधिक जानने-सुनने से प्राप्य है। केवल वही 'उसे' प्राप्त कर सकता है जिसका 'यह वरण करता है; केवल उसके प्रति ही यह 'आत्मा' अपने स्वरूप का उद्घाटन करता है।
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उपनिषद और गीता हमारा मार्गदर्शन करती हैं कि कैसे हम परमात्मा को प्राप्त/उपलब्ध हो सकते हैं। उपनिषद वेदों का ही अंतिम भाग यानि प्रत्यक्ष वेद ही हैं, जो अंतिम और एकमात्र प्रमाण है। अतः स्वाध्याय वहीं तक करें जहाँ तक उनसे प्रेरणा मिलती है। बाकी तो उनमें जो मार्गदर्शन दिया हुआ है, उसके अनुसार तपस्या/साधना करें।
परमात्मा को हम स्वाध्याय (यानि शास्त्रों के अध्ययन) द्वारा नहीं, बल्कि तपस्या/साधना/उपासना के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए पढ़ो कम और ध्यान अधिक करो।
"जहाँ कुछ पाने की भावना हो वहाँ परमात्मा कभी नहीं मिल सकते; जहाँ पूर्ण समर्पण की भावना हो, वहीं परमात्मा उपलब्ध हैं।" यही बात मैं कहना चाहता हूँ।
वेद ही अंतिम प्रमाण हैं, जो यह बात बता रहे हैं।
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अंतिम बात --- यह कहना चाहता हूँ कि परमात्मा से प्रार्थना करें कि आपको कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ महात्मा मिले जो आपको सही मार्ग दिखा सके और आपसे साधना/ तपस्या करा सके। जब आपको मार्ग मिल जाये तब आत्मा की साधना करें। मैं आप सब का सेवक हूँ अतः यहाँ जो कुछ भी लिखा है वह आपकी सेवा में अर्पित है। मैं आपका गुरु नहीं, मात्र एक अकिंचन सेवक हूँ। आप सब में मुझे परमात्मा के दर्शन होते हैं, और परमात्मारूप आप सब के श्रीचरणों में अपना प्रणाम निवेदित करता हूँ।
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (गीता)
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! श्रीहरिः !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ दिसंबर २०२४

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