गीता जयंती ---
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ॐ श्रीपरमात्मने नमः !! मैं आप सब का एक सेवक मात्र हूँ, इसीलिए आप सब से केवल प्रार्थना ही कर सकता हूँ। अन्य कुछ भी मेरे बस की बात नहीं है। आज ५१६१ वीं "गीता-जयंती" पर भगवान श्रीकृष्ण को अपने हृदय में अवतरित अवश्य करें। गीता -- भारत का प्राण है, इस के उपदेशों ने ही भारत को अब तक जीवित रखा है। आज मोक्षदा एकादशी भी है, एकादशी का व्रत न कर सकें तो एक समय ही भोजन करें। एकादशी के दिन भोजन में चावल न लें।
"गीता जयंती" पर मैं इस सृष्टि के सभी प्राणियों में ही नहीं, समस्त जड़-चेतन में परमात्मा को नमन करता हूँ। वे ही यह सारी सृष्टि बन गए है। भगवान वासुदेव के सिवाय अन्य कोई या कुछ भी नहीं है। वे अनन्य हैं।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (गीता)
अर्थात् - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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गीता में भगवान ने सिर्फ तीन विषयों -- कर्म, भक्ति और ज्ञान -- पर ही उपदेश देते हुए सम्पूर्ण सत्य-सनातन-धर्म को इन में समाहित कर लिया है। धर्म के किसी भी पक्ष को उन्होंने नहीं छोड़ा है। हम कर्मफलों पर आश्रित न रहकर अपने कर्तव्य-कर्म करते रहें, यह उनकी शिक्षाओं का सार है। भगवान कहते हैं कि हमें अपने सारे संकल्प भगवान को समर्पित कर देने चाहियें। एकमात्र कर्ता वे स्वयं हैं, हम पूर्ण रूप से उनको समर्पित हों। कर्ता भाव से हम मुक्त हों। इन्द्रियों के भोगों तथा कर्मों व संकल्पों को त्यागते ही हम योगारूढ़ हो जाते हैं। हम स्वयं ही अपने मित्र हैं, और स्वयं ही अपने शत्रु हैं। जिसने अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली है, उसे परमात्मा नित्य-प्राप्त हैं। हम ज्ञान-विज्ञान से तृप्त, जितेंद्रिय और विकार रहित (कूटस्थ) हों। हमारा मन निरंतर भगवान में लगा रहे। भूख और नींद पर हमारा नियंत्रण हो। हम निःस्पृह होकर अपने स्वरूप में स्थित रहें व तत्व से कभी विचलित न हों।
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अपने मन को परमात्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें। यह बड़ी से बड़ी साधना है। यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ जहाँ विचरण करता है, वहाँ वहाँ से हटाकर इसको एक परमात्मा में ही लगायें। विक्षेप का कारण रजोगुण है। हम सर्वत्र यानि सभी प्राणियों में अपने स्वरूप को देखें, और सभी प्राणियों को अपने स्वरूप में देखें। भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो सबमें मुझे देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता, और वह भी मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
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जब हम भगवान को सर्वत्र, और सभी में भगवान को देखते हैं, तो भगवान कभी अदृश्य यानि परोक्ष नहीं होते। यहाँ दृष्टा कौन हैं? दृष्टा, दृश्य और दृष्टि -- सभी भगवान स्वयं हैं। हम कूटस्थ-चैतन्य यानि ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर रहें। यह श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से भगवान का संदेश है। साथ साथ वे यह भी कहते हैं --
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४:११॥"
अर्थात् - जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं॥
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अब हमें क्या करना चाहिए? इस विषय पर भगवान कहते है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिये तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मेरे में मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा।
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अंत में गीता का चरम श्लोक है जिसकी व्याख्या करने में सभी स्वनामधान्य महानतम भाष्यकार आचार्यों ने अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा का प्रदर्शन किया है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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वह हर क्षण मंगलमय है जब हृदय में भगवान के प्रति परमप्रेम उमड़े और हम परमप्रेममय हो जाएँ। गीता महात्म्य पर भगवान श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन (जन्म-मरण) से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है।
गीता के उपदेश हमें भगवान का ज्ञान कराते हैं। स्वयं भगवान पद्मनाभ के मुखारविंद से हमें गीता का ज्ञान मिला है।
गीता एक सार्वभौम ग्रंथ है। यह किसी काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए है। इसे स्वयं श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है बल्कि श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है। इसके छोटे-छोटे १८ अध्यायों में इतना सत्य, ज्ञान व गंभीर उपदेश हैं, जो मनुष्य को नीची से नीची दशा से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।
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गीता में अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति ---
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०२४
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