ध्यान साधना में सफलता के लिए निम्न सात का होना परम आवश्यक है, अन्यथा सफलता नहीं मिलती है -- (१) भक्ति यानि परम प्रेम॥ (२) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा॥ (३) दुष्वृत्तियों का त्याग॥ (४) शरणागति और समर्पण॥ (५) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान॥ (६) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन॥ (७) भगवान की कृपा॥
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कुछ रहस्य हैं जो भगवान की कृपा से ही समझ में आते हैं, लेकिन उनको व्यक्त नहीं किया जा सकता। सतत और दीर्घ अभ्यास, भक्ति व समर्पण के बिना कुछ भी समझ में नहीं आता। अनुभूतियाँ तो हम ज्योतिर्मय ब्रह्म, नाद, निज आत्मा में विचरण, और परमशिव में स्थिति आदि की कर सकते हैं, लेकिन उनके पीछे वर्षों की समर्पित साधना भी होती है। अन्यथा ये सब बातें कल्पनातीत हैं।
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सदा यह भाव रखें कि हमारी देह शिवदेह है, हमारे नेत्र शिवनेत्र हैं, और हम शिव-चैतन्य यानि ब्राह्मीस्थिति में हैं। दोनों आँखों की पुतलियों को भ्रूमध्य की ओर उन्मुख कर जब हम भ्रूमध्य में प्रणव से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करते हैं, तो कुछ कालखंड के पश्चात ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। फिर ध्यान उस सर्वव्यापी ब्रह्मज्योति का ही किया जाता है। धीरे धीरे हमारी चेतना भी उसी के साथ एक हो जाती है, और हम शिवभाव में स्थित हो जाते हैं।
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ज्योतिर्मय ब्रह्म के सूर्यमण्डल में सर्वव्यापी भगवान पुरुषोत्तम का ध्यान करें। ध्यान करते करते एक न एक दिन परमशिव की भी अनुभूति हो जाएगी। वे अपरिभाष्य और अवर्णनीय हैं।
"ॐ नमः शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे।
शिवस्य हृदयं विष्णु: विष्णोश्च हृदयं शिव:॥" (स्कन्द पुराण)
ॐ तत्सत्॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॐ नमः शिवाय॥ ॐ श्रीहरिः॥
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०२४
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पुनश्च: --- इस सांसारिक जीवन के अंतिम क्षण तक कूटस्थ ब्रह्म की चेतना में ही मैं निरंतर रहूँ, इस समय यही एकमात्र अभीप्सा है। इधर-उधर सब तरफ भाग कर देख लिया, कहीं कोई सार की बात नहीं है। मेरी गति परमशिव हैं, यह मायावी सृष्टि नहीं। परमात्मा का संगीत मुझ में निरंतर बह रहा है। ध्यानस्थ होते ही सामने शांभवी मुद्रा में बैठे वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण की छवि आ जाती है। हर ओर प्रणव की ध्वनि गूंज रही है। जो वे हैं, वह ही मैं हूँ। मैं उनके साथ एक हूँ। कहीं कोई पृथकता नहीं है। अब और कुछ भी नहीं चाहिये।
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