Tuesday, 17 December 2024

एक दिन ध्यान में गुरु महाराज आये थे ---

 एक दिन ध्यान में गुरु महाराज आये, उनकी देह भुवन-भास्कर की तरह देदीप्यमान और घनीभूत प्रकाशमय थी। उनकी आँखें बड़ी तेजस्वी थीं, जिनकी ओर देखा भी नहीं जा रहा था। कुछ समय तक उन्होने बड़े ध्यान से मेरी ओर देखा और मुंह से कुछ कहे बिना ही एक उपदेश देकर अपनी घनीभूत प्रकाशमय देह को परमात्मा के प्रकाश में विलीन कर दिया।

उनका अनकहा आदेश था कि -- "जो मैं हूँ, तुम भी वही बनो, सिर्फ मेरे शब्दों को समझने में कोई सार नहीं है।"
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शास्त्रों में क्या लिखा है, उसे समझने मात्र से कोई लाभ नहीं है। उनकी अभिव्यक्ति, उनका प्राकट्य निज जीवन में हो। चेतना या अस्तित्व ही सब कुछ है। हमारे माध्यम से परमात्मा स्वयं अपनी ही खोज कर रहे हैं। हम वही हैं, जिसकी खोज हम स्वयं कर रहे हैं।
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मधुमक्खियाँ अनेक पुष्पों से पराग एकत्र कर के मधु बनाती हैं। क्या मधु का एक कण भी यह बता सकता है कि वह किस पुष्प से संग्रहित है? उसी तरह विशुद्ध चेतना से एकाकार होते ही हमारी व्यक्तिगत पहिचान समाप्त हो जाती है। महासागर में मिलने के पश्चात जल की एक बूंद अपनी पहिचान खो देती है। परमात्मा की चेतना से ही यह सारा चराचर जगत बना है। उस चेतना में समर्पित होते ही हमारी भी पृथकता समाप्त हो जाती है, और हम परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं।
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मैंने जो अनुभूत किया वह उनकी प्रेरणा से ही प्रकाशित कर रहा हूँ।
महादेव महादेव महादेव !! शिवोहं शिवोहं शिवोहं !! अहंब्रह्मास्मि !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ दिसंबर २०२४

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