“तत् त्वं असि" ---
(प्रश्न) क्या मैं वह जानता हूँ जिसे जानने से जो अज्ञात है, वह ज्ञात हो जाता है?
(उत्तर) नहीं। लेकिन उसे जानना मेरा धर्म है।
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एक दिन ध्यान में गुरु महाराज आए। उनका चेहरा भुवन-भास्कर की तरह देदीप्यमान था, आँखें बड़ी तेजस्वी, और देह घनीभूत प्रकाशमय थी। कुछ क्षणों तक उन्होने बड़े ध्यान से मेरी ओर देखा और दो वाक्यों में एक उपदेश देकर अपनी घनीभूत प्रकाशमय देह को परमात्मा के प्रकाश में विलीन कर दिया।
उनका आदेश था कि -- "जो मैं हूँ, तुम भी वही बनो", "सिर्फ मेरे शब्दों को ही समझने से कोई लाभ नहीं होगा।"
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एक बात और बिना कहे ही वे मुझे समझा गए कि मेरे बाहरी आचरण का, और मेरे शब्दों का उनके लिए कोई महत्व नहीं है। महत्व सिर्फ मेरे विचारों, भावों और संकल्पों की दृढ़ता का है। बाहरी आचरण तो उन्हीं का अनुसरण करेगा।
उनके कहने का एक और तात्पर्य था कि शास्त्रों के वचनों, यानि उनके शब्दों के अर्थ मात्र को समझने से कोई लाभ नहीं है। उनकी अभिव्यक्ति, उनका प्राकट्य निज जीवन में करना होगा।
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चेतना या अस्तित्व ही सब कुछ है। इसलिए मैं वही चेतना हूँ = "सोहं"॥
खोज कौन, और किसकी कर रहा है? -- हमारे माध्यम से परमात्मा स्वयं अपनी ही खोज कर रहे हैं। हम वही हैं, जिसकी खोज हम स्वयं कर रहे हैं। साधक और साध्य एक हैं।
मधुमक्खियाँ अनेक पुष्पों से पराग एकत्र कर के मधु बनाती हैं। क्या मधु का एक कण यह बता सकता है कि वह किस पुष्प से संग्रहित है?
उसी तरह विशुद्ध चेतना से एकाकार होते ही हमारी व्यक्तिगत पहिचान समाप्त हो जाती है। महासागर में मिलने के पश्चात जल की एक बूंद अपनी पहिचान खो देती है। परमात्मा की चेतना से ही यह सारा चराचर जगत बना है। उस चेतना में समर्पित होते ही हमारी भी पृथकता समाप्त हो जाती है, और हम परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं।
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महादेव महादेव महादेव !! शिवोहं शिवोहं अहंब्रह्मास्मि !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१६ दिसंबर २०२२
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