भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में दो बार, दो अलग-अलग स्थानों पर, दो सगे भाइयों -- युधिष्ठिर व अर्जुन को "अव्यभिचारिणी भक्ति" का उपदेश दिया है। जिस के जीवन में यह "अव्यभिचारिणी भक्ति" और "अनन्य योग" फलीभूत हो जाते हैं, उसे इसी जीवन में भगवत्-प्राप्ति हो सकती है।
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महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवान श्रीकृष्ण ने महाराजा युधिष्ठिर को तंडि ऋषि कृत "शिवसहस्त्रनाम" का उपदेश दिया है, जो भगवान श्रीकृष्ण को उपमन्यु ऋषि से प्राप्त हुआ था। उसका १६६वां श्लोक है --
"एतद् देवेषु दुष्प्रापं मनुष्येषु न लभ्यते।
निर्विघ्ना निश्चला रुद्रे भक्तिर्व्यभिचारिणी॥"
(यहाँ "निर्विघ्ना" और "निश्चला" शब्दों का भी प्रयोग हुआ है)
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महाभारत के भीष्म पर्व में कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को जो भगवद्गीता का उपदेश देते हैं, उसके १३वें अध्याय का ११वां श्लोक है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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भगवान श्रीकृष्ण ने अनन्ययोग के लिए अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्तवास के स्वभाव, और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि का होना बताया है।सत्यनिष्ठा पूर्वक भगवान के सिवा अन्य कुछ भी प्रिय न लगे, वह अव्यभिचारिणी भक्ति है। ऐसे नहीं कि जब सिनेमा अच्छा लगे तब सिनेमा देख लिया, नाच-गाना अच्छा लगे तब नाच-गाना कर लिया, गप-शप अच्छी लगे तब गप-शप कर ली; और भगवान अच्छे लगे तब भगवान की भक्ति कर ली। ऐसी भक्ति व्यभिचारिणी होती है। "सिर्फ भगवान ही अच्छे लगें, भगवान के सिवा अन्य कुछ भी अच्छा न लगे, निरंतर भगवान का ही स्मरण रहे वह "अव्यभिचारिणी भक्ति" है।"
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वेदान्त के दृष्टिकोण से स्वयं में भगवान की धारणा कर के कि मेरे सिवा अन्य कोई नहीं है, मैं ही सर्वत्र और सर्वस्व हूँ, अनन्य भक्ति है।
अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति, एकांतवास और कुसंग-त्याग को भगवान ने "अनन्य-योग" बताया है।
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स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में लिखा है -- "मयि च इश्वरे अनन्ययोगेन अपृथक्समाधिना न अन्यो भगवतो वासुदेवात् परः अस्ति। अतः स एव नः गतिः इत्येवं निश्चिता अव्यभिचारिणी बुद्धिः अनन्ययोगः। तेन भजनं भक्तिः न व्यभिचरणशीला अव्यभिचारिणी। सा च ज्ञानम्।"
अर्थात् -- "मुझ ईश्वर में अनन्य योगसे -- एकत्वरूप समाधियोग से अव्यभिचारिणी भक्ति। भगवान वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है। अतः वही हमारी परमगति है। इस प्रकार की जो निश्चित अविचल बुद्धि है, वही अनन्य योग है। उस से युक्त होकर भजन करना ही कभी विचलित न होनेवाली अव्यभिचारिणी भक्ति है। वह भी ज्ञान है।"
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यह "अनन्य-योग" भगवान श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय है। जो उन को प्रिय है, वह ही हमें भी प्रिय होना चाहिए। विश्वगुरु भगवान श्रीकृष्ण ही हमारे परमेष्ठी परात्पर परमगुरु हैं। हम सब उनको पूर्ण सत्यनिष्ठा से शरणागति द्वारा समर्पित हों। इस समर्पण में कोई कमी न हो।
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हमारे भगवान बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी हैं, वे हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं। जरा सी भी कमी हो तो वे हम से विमुख हो जाते हैं। और प्यार भी वे ऐसा माँगते हैं जिसमें निरंतर वृद्धि होती रहे। जैसे एक छोटे बच्चे को मनाते हैं, वैसे ही उन्हें भी मनाना पड़ता है। लेकिन जब उनसे प्यार हो ही गया है तो भला-बुरा सब लिखना ही पड़ेगा।
संत मलूकदास जी के शब्दों में --
"दीनदयाल सुनी जबतें, तब तें हिय में कुछ ऐसी बसी है,
तेरो कहाय के जाऊँ कहाँ मैं, तेरे हित की पट खैंचि कसी है।
तेरोइ एक भरोसो मलूक को, तेरे समान न दूजो जसी है,
ए हो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहीं तेरी हँसी है॥"
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गीता में भगवान कहते हैं ...
"ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥१४:२७॥"
अर्थात् - "क्योंकि मैं अमृत, अव्यय, ब्रह्म, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक अर्थात् पारमार्थिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ॥"
इसी भाव में स्थित होकर उनका ध्यान करना चाहिए। हम यह नश्वर देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं। उनमें समर्पित होने पर पृथक आत्मा का बोध भी नहीं रहता, वे ही वे रह जाते हैं और कर्ता भाव विलुप्त हो कर उपास्य, उपासना और उपासक वे स्वयं ही हो जाते हैं। ध्यान करते करते उपास्य के गुण उपासक में भी आ ही जाते हैं।
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भक्ति में व्यभिचार वह है जहाँ भगवान के अलावा अन्य किसी से भी प्यार हो जाता है भगवान हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं। हम जरा से भी इधर-उधर हो जाएँ तो वे चले जाते हैं। इसे समझना थोड़ा कठिन है। हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें। सारा जगत ब्रह्ममय हो। ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो। यह अव्यभिचारिणी भक्ति है। गीता में भगवान कहते हैं --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात् - बहुत जन्मोंके पश्चात् ज्ञानी पुरुष "सर्व जगत वासुदेवमय है" ऐसा मानकर मुझको भजता है; वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है॥
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इस स्थिति को हम ब्राह्मीस्थिति भी कह सकते हैं। भगवान कहते हैं --
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥२:७१॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित, और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति प्राप्त करता है॥
हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।।
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इसे "अनपायनी भक्ति" कहा है। भक्ति अनपायनी हो, इसका अर्थ है कि उसमें "अपाय" न हो। हमारी भक्ति में निरंतर वृद्धि हो, कभी भी कोई कमी न हो| भगवान् के चरणों में हमारी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाये, कभी घटे नहीं --
"बार बार बर मागउं हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥"
प्रेम ऐसा होना चाहिए जो हर क्षण बढ़े, उसमें कभी कोई कमी न आने पाये। यह अनपायिनी भक्ति है। यह भक्ति हर सांस के साथ बढ़ती है। यह "परमप्रेम" है जिसे भक्ति-सूत्रों में देवर्षि नारद ने "भक्ति" कहा है। भक्ति में हमें -- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष -- की भी कामना नहीं होनी चाहिए।
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प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण कुमार उपाध्याय जी के अनुसार यहाँ चारिणी का अर्थ चलने वाली है, उसमें ३ उपसर्ग लगा दिये हैं - अ, वि, अभि। अर्थात् किसी प्रकार छोड़ कर जाने वाली नहीं। तुलसीदास जी ने अनपायिनी शब्द का प्रयोग किया है। इसका अर्थ है -- बिना पैर वाली भक्ति, जो राम को छोड़ कर कहीं नहीं जाय।
"नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥" (सुन्दर काण्ड, ३३/१)
श्रीसूक्त में 'अनपगामिनी' शब्द का प्रयोग है। जो लक्ष्मी किसी अन्य स्थान नहीं जाये --
"तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥२॥"
(पाठभेद-(१) लक्ष्मीमलप-काशीकर, संस्कार भास्कर, (२) गामश्वान्-काशीकर, (३) लक्ष्मी तन्त्र में अनपगामिनीम् है, पर बाद में अनपायिनीयम् पाठ का प्रचलन लगता है।)
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ सितंबर २०२२
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