"ॐ नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः। अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्॥"
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हे परमात्मा, हे प्रभु, हे ईश्वर, -- मैं किस को नमन करूँ? तुम को नमन करूँ, या स्वयं को नमन करूँ? जो तुम हो वही मैं हूँ, और जो मैं हूँ वह ही तुम हो। मैं तुम्हें भी और स्वयं को भी, दोनों को ही नमन करता हूँ। दोनों में कोई भेद नहीं है।
ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति और आत्म-साक्षात्कार का यही मार्ग परमात्मा ने मुझे दिखाया है। यही उच्चतम ब्रह्मविद्या है, यही भूमा-विद्या है, और यही वेदान्त की पराकाष्ठा है।
उपरोक्त स्तुति बड़ी ही विलक्षण है। यह स्तुति स्कन्दपुराण के दूसरे खण्ड (वैष्णवखण्ड, पुरुषोत्तमजगन्नाथमाहात्म्य) के सताइसवें अध्याय के पंद्रहवें श्लोक से आरंभ होती है। ब्रह्माजी यहाँ भगवान विष्णु की स्तुति कर रहे हैं। विष्णु के साथ साथ स्वयं को भी नमन कर रहे हैं, और यह भी कह रहे है कि जो तुम हो, वही मैं हूँ; जो मैं हूँ, वही तुम हो। अतः दोनों को नमन।
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मुमुक्षुगण के साथ, भविष्य में चर्चा केवल ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मविद्या और वेदान्त की ही करेंगे, नहीं तो परमशिव की ही उपासना करेंगे। जिनकी ब्रह्मविद्या और ब्रह्मज्ञान में रुचि है वे ही मेरे साथ रहें।
हे अपारपारभूताय ब्रह्मरूप आपको नमन॥ ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
३० नवंबर २०२४
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