Thursday, 2 August 2018

अनन्य भक्ति सबसे बड़ी साधना है. हमें अनन्य भक्ति प्राप्त हो ...

अनन्य भक्ति सबसे बड़ी साधना है. हमें अनन्य भक्ति प्राप्त हो ...
.
भगवान कहते हैं .....
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते | तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||९:२२||
अर्थात् जो अनन्य भाव से युक्त हो कर परम देव मुझ नारायण को आत्म रूप से जानते हुए मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी श्रेष्ठ निष्काम उपासना करते हैं, निरन्तर मुझमें ही स्थित उन का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ|
.
यहाँ अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति का नाम "योग" है, और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम "क्षेम" है| ये दोनों काम भगवान ही करते हैं| योगक्षेम की व्याकुलता सभी में होती है| हमें वह व्याकुलता भगवान को ही सौंप देनी चाहिए| हमारे अवलंबन भगवान ही हों|
.
अनन्य भक्ति और अव्यभिचारिणी भक्ति एक ही हैं| भगवान कहते हैं ....
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी | विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ||१३:११||
अर्थात मुझ ईश्वरमें अनन्य योग (एकत्व रूप) अव्यभिचारिणी भक्ति है| (भगवान् वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है, अतः वे ही हमारी परमगति हैं. इस प्रकार की जो निश्चित अविचल बुद्धि है वही अनन्य योग है| उससे युक्त होकर भजन करना ही कभी विचलित न होने वाली अव्यभिचारिणी भक्ति है).
विविक्तदेशसेवित्व अर्थात् एकान्त पवित्र देश सेवन का स्वभाव, और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना, इसमें सहायक है|
.
अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और विषयासक्त जन समुदाय में प्रीति न होना…. इस प्रकार की जिसकी भक्ति होती है, ऐसा साधक आध्यात्म ज्ञान में नित्य रमण करता है|
परमात्मा को सर्वत्र देखना ज्ञान है, और इस से विपरीत जो है, वह अज्ञान है|
.
भगवान आचार्य शंकर के अनुसार .....
गलिते देहाध्यासे विज्ञाते परमात्मनि| यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः||
अर्थात् जब देहाध्यास गलित हो जाता है, परमात्मा का ज्ञान हो जाता है| तब जहाँ जहाँ मन जाता है, वहाँ वहाँ समाधि का अनुभव होता है|
.
जीवन का हर कार्य, हर क्षण, परमात्मा की प्रसन्नता के लिए हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जुलाई २०१८

No comments:

Post a Comment