Thursday 2 August 2018

भोजन ..... एक प्रत्यक्ष वास्तविक यज्ञ और ब्रह्मकर्म है ....

भोजन ..... एक प्रत्यक्ष वास्तविक यज्ञ और ब्रह्मकर्म है ......
.
हम जो भोजन करते हैं, वास्तव में वह भोजन हम स्वयं नहीं करते, बल्कि भगवान स्वयं ही प्रत्यक्ष रूप से हमारे माध्यम से करते हैं| 
भोजन इसी भाव से करना चाहिए कि भोजन का हर ग्रास हवि रूप ब्रह्म है जो वैश्वानर रूपी ब्रह्माग्नि को अर्पित है| भोजन कराने वाले भी ब्रह्म हैं और करने वाले भी ब्रह्म ही हैं| सब प्राणियों की देह में वैश्वानर अग्नि के रूप में, प्राण और अपान के साथ मिलकर चार विधियों से अन्न (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) ग्रहण कर वे ही पचाते हैं|
अतः भोजन स्वयं की क्षुधा की शांति और इन्द्रियों की तृप्ति के लिए नहीं, बल्कि एक ब्रह्मयज्ञ रूपी ब्रह्मकर्म के लिए है| यज्ञ में एक यजमान की तरह हम साक्षिमात्र हैं| कर्ता और भोक्ता तो भगवान स्वयं ही हैं| गीता में भगवान ने इसे बहुत अच्छी तरह समझाया है|
.
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् | ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||४:२४||
.
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ||१५:१४||
.
>>> गहरे ध्यान में मेरुदंड में एक शीत और ऊष्ण प्रवाह की अनुभूति सभी साधकों को होती है जो ऊपर नीचे बहते रहते हैं, वे ही सोम और अग्नि है, वे ही प्राण और अपान है जिनके समायोजन की प्रक्रिया से प्रकट यज्ञाग्नि वैश्वानर है| भोजन हम नहीं बल्कि वैश्वानर के रूप में भगवान स्वयं करते हैं जिससे समस्त सृष्टि का पालन-पोषण होता है| जो भगवान को प्रिय है वही उन्हें खिलाना चाहिए| कर्ताभाव शनेः शनेः तिरोहित हो जाना चाहिए|
.
जैसा मैनें अनुभूत किया और अपनी सीमित व अल्प बुद्धि से समझा वैसा ही मेरे माध्यम से यह लिखा गया| यदि कोई कमी या भूल है तो वह मेरी सीमित और अल्प समझ की ही है| कोई आवश्यक नहीं है कि सभी को ऐसा ही समझ में आये| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए भगवान से क्षमा याचना करता हूँ|
.
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२३ जुलाई २०१७
.
पुनश्चः :--- भगवान कहते हैं .....
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति| तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ||९:२६||
अर्थात् जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, और जल आदि कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है, उस प्रयतात्मा ... शुद्धबुद्धि भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए वे पत्र पुष्पादि मैं ( स्वयं ) खाता हूँ अर्थात् ग्रहण करता हूँ||

No comments:

Post a Comment