Friday 8 October 2021

योगीराज श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी का जन्मदिवस ---

 

आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में ये श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय (३० सितम्बर १८२८ – २६ सितम्बर १८९५ ) मेरे परम आदर्श पुरुष हैं, जिनका आज १९३वाँ जन्मदिवस है| मुझे इनके जीवन से बहुत अधिक प्रेरणा मिली है| हर गृहस्थ व्यक्ति का एक सामान्य सा प्रश्न होता है कि घर-गृहस्थी का, कमाने खाने का झंझट -- और इन सब के पश्चात आध्यात्मिक साधना कैसे करें? श्यामाचरण लाहिड़ी ने अपने जीवन से इस प्रश्न का उत्तर दिया| एक अति अल्प वेतन वाली सरकारी नौकरी करते हुए, घर पर बच्चों को गृह शिक्षा देने से प्राप्त हुए कुछ रुपयों से घर का खर्चा चलाया| कभी किसी से कुछ नहीं लिया| काशी, बर्दवान और कश्मीर नरेश सहित अनेक श्रीमंत और अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति उनके शिष्य थे जिनसे वे कुछ भी ले सकते थे, पर कभी किसी से कुछ भी नहीं लिया| गुरुदक्षिणा में प्राप्त रुपये भी हिमालय में तपस्यारत साधुओं की सेवा में भिजवा देते थे, उनका उपयोग घर के किसी काम के लिए नहीं किया| सामाजिक कार्यों में संलग्न रहते हुये वे एक क्षण भी नष्ट नहीं करते थे| समय मिलते ही पद्मासन में बैठकर ध्यानस्थ हो जाते थे| नींद की आवश्यकता उनकी देह को नहीं थी| पूरी रात उनकी बैठक में पूरे भारत से खिंचे चले आये साधक और भक्त भरे रहते थे| एक आदर्श गृहस्थ योगी का जीवन उन्होंने जीया जिसने हज़ारो लोगों को प्रेरणा दी| ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन!
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योगिराज श्री श्री श्यामाचरण लाहिडी महाशय का जन्म सन ३० सितम्बर १८२८ ई. को कृष्णनगर (बंगाल) के समीप धुरनी ग्राम में हुआ था| इनके परम शिवभक्त पिताजी वाराणसी में आकर बस गए थे| श्यामाचरण ने वाराणसी के सरकारी संस्कृत कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की| संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी, बंगला, उर्दू और फारसी भाषाएं सीखी| श्रीमान नागभट्ट नाम के एक प्रसिद्ध शास्त्रज्ञ महाराष्ट्रीय पंडित से उन्होंने वेद, उपनिषद और अन्य शास्त्रों व धर्मग्रंथों का अध्ययन किया|
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पं.देवनारायण सान्याल वाचस्पति की पुत्री काशीमणी से इनका १८ वर्ष की उम्र में विवाह हुआ| २३ साल की उम्र में इन्होने सरकारी नौकरी कर ली| उस समय सरकारी वेतन अत्यल्प होता था अतः घर खर्च पूरा करने के लिये नेपाल नरेश के वाराणसी में अध्ययनरत पुत्र को गृहशिक्षा देते थे| बाद में काशी नरेश के पुत्र और अन्य कई श्रीमंत लोगों के पुत्र भी इनसे गृहशिक्षा लेने लगे|
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हिमालय में रानीखेत के समीप द्रोणगिरी पर्वत की तलहटी में इनको गुरुलाभ हुआ| इनके गुरू हिमालय के अमर संत महावतार बाबाजी थे जो आज भी सशरीर जीवित हैं और अपने दर्शन उच्चतम विकसित आत्माओं को ही देते हैं| गुरू ने इनको आदर्श गृहस्थ के रूप में रहने का आदेश दिया और ये गृहस्थी में ही रहकर संसार का कार्य करते हुए कठोर साधना करने लगे|
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जैसे फूलों की सुगंध छिपी नहीं रह सकती वैसे ही इनकी प्रखर तेजस्विता छिपी नहीं रह सकी और मुमुक्षुगण इनके पास आने लगे| ये सब को गृहस्थ रह कर साधना करने का आदेश देते थे, क्योंकि गृहस्थाश्रम पर ही अन्य आश्रम निर्भर हैं| इनके शिष्यों में अनेक प्रसिद्ध सन्यासी भी थे जैसे स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी, स्वामी केशवानंद ब्रह्मचारी, स्वामी प्रणवानंद गिरी, स्वामी केवलानंद, विशुद्धानंद सरस्वती, बालानंद ब्रह्मचारी आदि|
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कश्मीर नरेश, काशी नरेश और बर्दवान नरेश भी इनके शिष्य थे| इसके अतिरिक्त उस समय के अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति जो कालांतर में प्रसिद्ध योगी हुए, भी इनके शिष्य थे जैसे -- पं. पंचानन भट्टाचार्य, पं. भूपेन्द्रनाथ सान्याल, पं. काशीनाथ शास्त्री, पं. नगेन्द्रनाथ भादुड़ी, पं. प्रसाद दास गोस्वामी, रामगोपाल मजूमदार आदि| सामान्य लोगों के लिये भी इनके द्वार खुले रहते थे| वाराणसी के वृंदाभगत नाम के इनके एक शिष्य डाकिये ने योग की परम सिद्धियाँ प्राप्त की थीं|
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लाहिड़ी महाशय ने न तो किसी संस्था की स्थापना की, न कोई आश्रम बनवाया और न कभी कोई सार्वजनिक प्रवचन दिया और न कभी किसी से कुछ रुपया पैसा लिया| अपने घर की बैठक में ही साधनारत रहते थे और अपना खर्च अपनी अत्यल्प पेंशन और बच्चों को गृहशिक्षा देकर पूरा करते थे|
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इनके घर में शिवपूजा और गीतापाठ नित्य होता था| शिष्यों के लिये नित्य गीतापाठ अनिवार्य था| अपना सारा रुपया पैसा अपनी पत्नी को दे देते थे, अपने पास कुछ नहीं रखते थे| अपनी डायरी बंगला भाषा में नित्य लिखते थे| शिष्यों को दिए प्रवचनों को इनके एक शिष्य पं. भूपेन्द्रनाथ सान्याल बांगला भाषा में लिपिबद्ध कर लेते थे| उनका सिर्फ वह ही साहित्य उपलब्ध है|
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सन २६ सितम्बर १८९५ ई. को इन्होने देहत्याग किया और इनका अंतिम संस्कार एक गृहस्थ का ही हुआ| शरीर छोड़ते समय तीन विभिन्न स्थानों पर एक ही समय में इन्होने अपने तीन शिष्यों को सशरीर दर्शन दिए और अपने प्रयाण की सूचना दी| इनके देहावसान के ९० वर्ष बाद इनके पोते ने, और स्वामी सत्यानंद गिरि ने इनकी डायरियों के आधार पर इनकी जीवनी लिखी| इनके कुछ साहित्य का तो हिंदी, अंग्रेजी और तेलुगु में अनुवाद हुआ है, बाकी बंगला भाषा में ही है|
ऐसे महान आदर्श और परात्पर गुरु योगीराज पं.श्यामचरण लाहिड़ी महाशय को नमन !
३० सितंबर २०२१

1 comment:

  1. ईसा की १८ वीं शताब्दी में वाराणसी के एक गृहस्थ योगी श्री श्यामचरण लाहिड़ी (३० सितम्बर १८२८ -- २६ सितंबर १८९५) ने जो सनातन धर्म के आध्यात्मिक विचार प्रस्तुत किए वे इस समय पूरी विश्व में एक नई चेतना को जगा रहे हैं| उन्होने अपने हाथों से न तो कोई पुस्तक लिखी, न कभी कोई सार्वजनिक प्रवचन दिया, न कोई प्रचार किया, और न ही किसी संस्था की स्थापना की| एक दीपक की रोशनी में पूरी रात अपने घर की बैठक में पद्मासन लगाकर बैठे रहते थे, जहाँ पूरे भारत से मुमुक्षु स्वतः ही खिंचे चले आते थे| उनके शिष्यों में अनेक विरक्त, सन्यासी, सदगृहस्थ और राजा-महाराजा थे| उन्होने कभी किसी से कोई पैसा नहीं मांगा| उनके शरीर को नींद या विश्राम की आवश्यकता नहीं पड़ती थी| अपना घर खर्च चलाने के लिए वे बच्चों को गृह-शिक्षा (ट्यूशन) देते और सारा पैसा पत्नी को दे देते| जहाँ उन्होने आजीविका हेतु जो नौकरी की उसमें वेतन अत्यल्प था और पेंशन की राशि भी अति अति अल्प थी, जिनसे गृहस्थी नहीं चलती थी|
    आज पूरे विश्व में उनके करोड़ों अनुयायी हैं और एक नई आध्यात्मिक चेतना जागृत हो रही है| मैं उन्हें अपना आदर्श मानता हूँ| उन्हीं की परंपरा के आदर्श इस जीवन को संचालित कर रहे हैं| उन पुराण-पुरुष की जय हो| वे मेरे कूटस्थ-चैतन्य में नित्य-निरंतर बिराजमान रहें| ॐ ॐ ॐ !!

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